भारतीय राजनय को नए आयाम देते मोदी

Last Updated 21 Nov 2014 12:27:49 AM IST

नरेंद्र मोदी की विदेश यात्राओं का अंदाज कुछ ऐसा है कि पुराने जमाने के छत्रपति सम्राटों के दिग्विजयी अमेध वाले अभियानों की याद आने लगी है.




भारतीय राजनय को नए आयाम देते मोदी

नए प्रधानमंत्री के ताबड़तोड़ विदेश दौरों से हताश कांग्रेसी तो यह तक कहने लगे हैं कि मोदी ‘गैरहाजिर पीएम’ हैं! हकीकत यह है कि एक दशक से भी अधिक समय से गतिरोध और दिशाहीनता का शिकार रहे भारतीय राजनय को इन यात्राओं ने सार्थक जोश से भर दिया है. इस तेज रफ्तार का संयोग अभूतपूर्व दूरदर्शिता के साथ हो रहा है. मोदी के दुनिया के सफर का हर कदम एक मजबूत श्रृंखला की कड़ी के निर्माण का प्रयास लगता है. ऑस्ट्रेलिया का ताजातरीन दौरा इसका बेहतरीन उदाहरण है.

कहने को मोदी जी-20 के सम्मेलन में भाग लेने ऑस्ट्रेलिया पधारे थे, पर वास्तव में इस दौरे का एक मकसद उस देश के साथ उभय पक्षीय रिश्तों को और अधिक दोस्ताना और मजबूत बनाना था. इसके साथ-साथ वहां वह बरास्ता म्यांमार आसियान की सालाना बैठक में शिरकत करने के बाद पहुंचे थे, अर्थात दक्षिण-पूर्व एशियाई क्षेत्र में भारत के हितों के प्रति इस एनडीए सरकार की संवेदनशीलता का सार्वजनिक प्रदर्शन भी अनायास किया जा सका. इस बात को भी रेखांकित करना जरूरी है कि ओबामा के साथ अपनी मुलाकात का लाभ मोदी ने बाली शिखर सम्मेलन में विश्व व्यापार संगठन में खाद्यान्न अनुदान विषयक जिच की स्थिति को दूर करने के लिए कामयाबी के साथ किया. संक्षेप में स्थानीय, क्षेत्रीय और वैश्विक तीनों स्तर पर राष्ट्रहित संधान किया जा रहा था और किया गया. यह सवाल पूछना गैरवाजिब नहीं कि अचानक ही क्यों ऑस्ट्रेलिया की याद 28 साल बाद भारत के किसी वजीरे आजम को आई है?

ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप भी है और राष्ट्र-राज्य भी. एक साथ यह नई और पुरानी दुनिया का हिस्सा है. राष्ट्रकुल का सदस्य होने के कारण बर्तानवी रिश्ते से वह भारत का मौसेरा भाई भी समझा जा सकता है. यों हमारे देश में क्रिकेट का नाता ही सबसे अहम है! बहरहाल, शीतयुद्ध के युग से आज तक ऑस्ट्रेलिया अमेरिका और ब्रिटेन का सैनिक संधि मित्र रहने की वजह से गुटनिरपेक्ष भारत से जरा दूर रहा है. हाल के बरसों में गोरी नस्लवादी हिंसा का शिकार ऑस्ट्रेलिया में रहने वाले हिंदुस्तानी छात्र और अन्य प्रवासी होते रहे हैं. इससे दोनों देशों के बीच खटास बढ़ी है. परमाणविक ईधन के भारत को निर्यात को लेकर भी मनमुटाव रहा है. मगर साथ ही यह तत्काल जोड़ने की दरकार है कि खाद्य सुरक्षा हो या ऊर्जा सुरक्षा, दोनों के ही मद्देनजर ऑस्ट्रेलिया भारत के लिए इस घड़ी आकषर्क है. जहां तक ऑस्ट्रेलिया का सवाल है, वह अपने को कद्दावर चीन की विस्तारवादी छाया से मुक्त करना चाहता है. चीन ही क्यों?

उसके उत्तर दिशा में फैला इंडोनेशिया भी उसे आशंकित करता रहता है. उस देश में संसार के मुसलमानों की सबसे बड़ी आबादी है और वहां इस्लामी कट्टरपंथ से उपजी दहशतगर्दी का शिकार ऑस्ट्रेलिया कुछ बरस पहले बाली नाइट क्लब धमाके में हो चुका है. एक और मजेदार बात यह है कि जहां मोदी ऑस्ट्रेलिया के पूंजी निवेशकों को भारत आने का न्यौता दे रहे थे, वहीं उनके साथ ऑस्ट्रेलिया गए अदानी साढ़े सात अरब डॉलर का निवेश ऑस्ट्रेलिया में करने की पेशकश कर चुके हैं. यह निवेश कोयला खदान में किया जाना है. इसके लिए आवश्यक पर्यावरण विषयक अनुमति वह प्राप्त कर भी चुके हैं. इतना ही नहीं, इस विराट परियोजना में करीब ढाई अरब डॉलर की हिस्सेदारी कोरियाई कंपनी पॉस्को की भी है. मतलब यह है कि ऑस्ट्रेलिया के साथ आर्थिक नाते उभयपक्षीय ही नहीं, त्रिपक्षीय बन चुके हैं.

सिडनी में जिस गर्मजोशी से भारतवंशियों ने मोदी का स्वागत किया, उससे ऑस्ट्रेलिया की सरकार को इस बात का अहसास हुआ कि मोदी और उनके पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री में कितना अंतर है. जो लोग यह लांछन लगाते नहीं थकते कि मोदी अपने राजनयिक पराक्रम से अपना महिमा मंडन करते रहते हैं, उन्हें यह याद दिलाने की जरूरत है कि करिश्माई जादूगरी से मजमा लूटने का लाभ भारत को होना स्वाभाविक है. पस्त, दरिद्र और लकवाग्रस्त देश की पहचान अब वास्तव में उदीयमान आत्मविश्वास से भरे देश के रूप में होने लगी है. यह ठीक है कि मोदी सभी जगह कुछ बातों को दोहराते हैं और कभी-कभी यह लगता है कि वह स्वदेश में अपने मतदाता को संबोधित कर रहे हैं. पर यह नकारना कठिन है कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय उन्हें मनमोहन सिंह की तुलना में कहीं अधिक गंभीरता से लेता है.

रही बात यह कि क्या विदेश नीति की तेज रफ्तार बरकरार रखने के चक्कर में कहीं आंतरिक चुनौतियों से तो मोदी मुंह नहीं चुरा रहे? यह साफ है कि जिस तरह ऑस्ट्रेलिया में मोदी ने काले धन का मुद्दा उठाया और इसे आतंकवाद, तस्करी आदि से जोड़ा, यह आरोप बेबुनियाद है. निकट भविष्य में ही परमाणविक ईधन की आपूर्ति आरंभ होने वाली है जिसके बाद भारत-ऑस्ट्रेलिया का सामरिक नाता अपना नाम गैर सैनिक संदर्भ में सार्थक करेगा.

यह भी न भूलें कि हमारी आबादी सवा अरब पार कर चुकी है. खुशहाल हिंदुस्तानी पर्यटकों, छात्रों और पेशेवरों से होने वाली कमाई को कोई भी ऑस्ट्रेलियाई सरकार अनदेखा नहीं कर सकती. न ही प्रवासी भारतीय नागरिकों के मतों की उपेक्षा कर सकती है. वहां संसदीय चुनावों में हार-जीत का फैसला हजारों नहीं, सैकड़ों मतों से होता है. कई निर्वाचन क्षेत्रों के नतीजे हिंदुस्तानी प्रभावित कर सकते हैं. ऑस्ट्रेलिया के वर्तमान प्रधानमंत्री अपनी भारत यात्रा के दौरान मोदी की भूरि-भूरि प्रशंसा कर इस दौरे की सफलता की जमीन तैयार कर ही चुके थे. पुतिन के साथ जो कुछ अशोभनीय कहासुनी होनी थी, उसके सिलसिले में भी भारत को अपनी तरफ रिझाए रखना एबट की मजबूरी रही है.

मोदी ने आरंभ में ही यह साफ कर दिया था कि अब तक पूरब की तरफ देखने की चर्चा होती रही है. अब वक्त इस बात का आ चुका है कि पूरब में कुछ किया जाए! पूरब का अर्थ अब तक म्यांमार से लेकर चीन-जापान-कोरिया तक सीमित था. मोदी की हाल की ऑस्ट्रेलिया यात्रा के बाद इसमें भूमध्यरेखा के दक्षिण वाला दक्षिण-पूर्व एशिया भी जुड़ गया है. आने वाले दिनों में निश्चय ही यह बदलाव हमारी विदेश नीति को प्रभावित करेगा. जो अभियान ब्रिक्स के शिखर सम्मेलन में मोदी के पदार्पण से आरंभ हुआ था, वह अभी थमा नहीं है. चीन के साथ पड़ोस में भू-राजनीतिक रस्साकशी के साथ-साथ अर्थजगत में ‘दोस्ताना’ स्पर्धा जारी है. भारत के लिए विकल्प खुलते जा रहे हैं. यह चिंता का नहीं, हर्ष का विषय होना चाहिए.

(लेखक अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं)

पुष्पेश पंत
लेखक


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