कार में प्रेम का तराना

Last Updated 26 Oct 2014 06:01:35 AM IST

इन दिनों खबरें विज्ञापनों की तरह आती हैं और विज्ञापन खबर की तरह आते हैं.


सुधीश पचौरी (फाइल फोटो)

आप किसी एक खबर चैनल को एक घंटे देखेंगे तो आप हमसे सहमत होंगे कि विज्ञापन खबर की तरह आने लगे हैं और खबरें विज्ञापन की शैली में दी जाने लगी हैं. अगर हम मानें कि खबरों का एजेंडा विकास का एजेंडा है तो हमको यह देख और भी अच्छा लगेगा कि विज्ञापनों का एजेंडा भी विकास का एजेंडा है. खबरें यदि विकास को नेताओं के राजनीतिक बयानों के जरिए कहती हैं तो विज्ञापन विकास के मुद्दे को विज्ञप्त ब्रांडों के जरिए कहते हैं. लेकिन दोनों के विकास के आइडिया में बड़ा फर्क है.

हम उस बड़ी गाड़ी के विज्ञापन को याद करें जो इन दिनों लगभग हर चैनल पर बार-बार दिखा करता है. गाड़ी एक कविता के साथ अवतरित होती है. गाड़ी दौड़ती जाती है और कविता कहती जाती है : ‘संकरी गलियां कीचड़ कीचड़, कुछ फच्च फच्च...’

गाड़ी ऊंचे-नीचे गड्ढों से निकलती हुई एक शादी वाले घर तक पहुंचती है और जब गाड़ी चलाने वाला शादी वाले घर के मालिक से मिलता है तो वह पूछता है- घर ढूंढने में कोई परेशानी तो नहीं हुई? गाड़ी से आने वाला अपनी गाड़ी को देखकर कहता है- नहीं तो! यानी परेशानी तो हुई सड़क पर, कीचड़ मिली, गड्ढे मिले, लेकिन इस नई गाड़ी ने उसकी सारी परेशानी हर ली!

विज्ञापन ने कार को बेचते हुए खबर दी कि हमारी सड़कों में गड्ढे हैं जो भरे नहीं जा सके हैं, लेकिन आपको गड्ढों की वजह से हतोत्साहित या शर्मिदा होने की जरूरत नहीं, आपके शहर के गड्ढों का इलाज हमारे पास है! इलाज यह कि आपको गड्ढों से आसानी से निकलने वाली गाड़ी दी जाए! अगर आप यह गाड़ी ‘अफोर्ड’ कर सकते हैं तो सड़कों के इन गड्ढों की चिंता न करें!

छोटे शहरों में ही नहीं, बडे नगरों में भी सड़क और गड्ढे बराबर अनुपात में मिलते हैं. बरसात में उनमें कीचड़ भरा होता है और कई बार गाड़ियां उनमें फंस भी जाती हैं. गाड़ी कहती है कि आपके गड्ढों के लिए ‘मैं हूं ना!’

विज्ञापन प्रकारांतर से समझाता है कि अगर गड्ढे हैं तो उन्हें रहने दें. यानी कि समस्या है तो रहे लेकिन आप आराम से रहें. हम आपको आराम देने के लिए हैं. हां, आराम खरीदने की एक कीमत है- आप उसे दें तो आराम ले सकते हैं.

यह विज्ञापन विकास के उस गड्ढे भरे रास्ते का इलाज करने के लिए इंतजार करने की जगह हमें कार का एक शॉर्टकट देता है.

वह अपने विकास के इस मामूली से सत्य को मानकर चलता है कि सड़कें हैं तो गड्ढे भी बनते रहेंगे. अगर गड्ढों से निजात पानी है तो आप यह गाड़ी लें.
इस बाबत शायद ही अध्ययन हुआ हो कि सड़क पर बनने वाले गड्ढों का भरने वाले पानी और चलने वाली गाड़ियों के बीच किस प्रकार का प्रगाढ़ संबध बनता है.
अपने सड़क विकास में अगर सड़क है तो नाली नहीं है, नाली है तो रुकी हुई है. इसलिए बरसात में पानी भरता रहता है, किंतु फिर भी गाड़ियां चलती हैं तो गड्ढे गहराने लगते हैं. विकास की आपाधापी में आदमी को बाहर निकलना ही है. कीचड़ से अगर कोई निष्कलंक पार करा सकता है तो एक खास गाड़ी ही करा सकती है, जो गड्ढों में न फंसे यानी जिसका इंजन दमदार हो.

विज्ञापन का कुल सबक यह है कि आप अपने और उन गड्ढों के बीच हमारी गाड़ी को ही एक मात्र मुक्ति का उपाय मानें. आप जानते हैं और हम भी जानते हैं कि गड्ढे हैं, वे बने रहने वाले हैं, उन्हें अपनी जगह बने रहने दें; आप अपनी गाड़ी चलाते रहें, वह आपको आपके गंतव्य तक पहुंचा देगी. और आपको क्या चाहिए!
यह नितांत स्वार्थ-वर्धक संदेश है: ‘आप अपना काम निकालो, बाकी जाएं भाड़ में’!

यह विज्ञापन हमें समस्याओं के साथ जीने का संदेश देता है. यह कहता है कि समस्याएं रहेंगी. हां, आप अपने लिए उनका इलाज कर सकते हैं. विज्ञापन हमें आश्वस्त करता है कि जहां गड्ढों के कारण शहरी विकास की हर थियरी फेल है, वहां कॉरपोरेट की कार-विकास की थियरी हमारा सहारा है.

कारों के विज्ञापन इन दिनों जितने सुहाने, जितने कमनीय बनाए जाने लगे हैं, उतने कमनीय पहले न थे. आठ सीट वाली बड़ी-सी कार में आप हैं, आपका पूरा परिवार है और आप साठ-सत्तर साल के होते हुए भी अपनी साठ साला पत्नी के लिए देवानंद का गाना सुनाने लगते हैं: ‘देखो रूठा ना करो, बात नजरों की सुनो’.
प्यार के पुराने उस फिल्मी संस्करण में एक गाड़ी, कार ने नया दम भर दिया कि गाड़ी आ गई है, अब तो मत रुठो! कहां तो नजरों की बात थी और कहां अब रूठी हुई नजरों को मनाने के लिए एक गाड़ी आ गई.

विकास की सिद्धांतिकियों; थियरीज में प्रेम का निर्माण एक स्वाभाविक क्रिया है जो विकास का पर्याय बन जाता है. इस गाने में आई प्रेमी-प्रेमिका के बीच अनबन का कारण एक गाड़ी का न होना नहीं है, लेकिन इस बड़ी कार के विज्ञापन में आई साठ साल की रूठी पत्नी को मनाने के लिए गाना सुनाने वाली विज्ञप्त गाडी की जरूरत आन पड़ी है. गाड़ी नहीं है तो गाना नहीं है, गाना नहीं है तो पत्नी को मनाना नहीं है, पत्नी को मनाना है तो गाड़ी को लाना है! प्रेम के बीच एक बड़ी गाड़ी का आना विघ्न नहीं है, सुविधा है. यहां प्रेमिका पुरानी वाली नहीं है बल्कि एक नई उपभोग प्रिय प्रेमिका है.

पहले प्रेम और विकास के बीच एक नाता बनता था, अब प्रेम की जगह गाड़ी ही विकासमान है. पहले गड्ढे रोकते थे, अब गाड़ी पार कराती है. पहले प्रेम में रूठने की जगह होती थी, अब रूठने की जगह खुद गाड़ी आ गई है और रूठना संभव ही नहीं रह गया है. विज्ञापन हमारे विकासात्मक भावक्षेत्रों को इसी तरह तोड़ते-मरोड़ते हैं.

सुधीश पचौरी
लेखक


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