इंतजार की घड़ियां खत्म हुई

Last Updated 21 Sep 2014 01:21:53 AM IST

यह एक रेडियो जिंगल ही तो थी जो अक्सर हमें कहती रहती थी कि ‘अब आपके इंतजार की घड़ियां खत्म हुई’.




सुधीश पचौरी, लेखक

कहने की जरूरत नहीं कि यह एक ‘जिंगल’ भी है और एक ‘सांस्कृतिक-राजनीतिक संदेश’ भी!

मीडिया अपनी जिंगलों, अपने गानों, अपनी कहानियों के जरिए इंसान के ‘इंतजार’ को ‘सकल सांस्कृतिक विचार’ की तरह बनाता आया है. उसने ‘इंतजार’ का आइडिया दिया है, उसी ने खत्म किया है. आजकल कोई किसी का इंतजार नहीं करता. हर आदमी को चाहिए सब कुछ तुरत और उसी वक्त जब वह मांग रहा है. यह ‘टू मिनट नूडल्स’ से आगे का, ‘फास्ट फूड’ से भी आगे का, ‘इंस्टेंट फूड’ का जमाना है. चार-पांच दशक पुराना समय एक धीमा समय ही था जब लंबा इंतजार करने वाले हुआ करते थे.

ख्वाजा अहमद अब्बास की लगभग विस्मृत कर दी गई फिल्म ‘चार दिल चार राहें’ का एक गाना इसकी अच्छी व्याख्या करता है. गाने की  की टेक थी: ‘इंतजार और अभी और अभी और अभी..’. नायिका को लता की आवाज मिली थी. ‘और अभी की टेक’ इस कदर सुरीली थी, वह अब भी है, कि नायिका का यों इंतजार करना अच्छा लगने लगता. नायिका इंतजार कर रही है और इतना मधुर गा रही है कि मन करता है सुनते रहें. हम चाहते कि वह इसी तरह इंतजार हमेशा करती रहे. उसका सुरीलापन उसे इंतजार करवाता लगता. ‘इंतजार’ करना, इंतजार करते-करते बेकरार होने लगना, ‘प्रिय’ का न आना, प्रिय के न आने पर शिकायत करके उलाहना देने लगना और फिर ‘रोते-रोते गुजर गई रात रे’ स्टाइल का गाना गाने लगना इंतजार के कभी खत्म न होने की कहानियां-सी हैं. ‘इंतजार’ एक सांस्कृतिक-राजनीतिक  विचार है जिसका इतिहास लिखा जा सकता है. ‘का करूं सजनी आए न बालम’ जैसी ठुमरी और इसी तरह की  जमीन पर असंख्य गीत इसीलिए लिखे गए गए क्योंकि इंतजार करना और बेकरार होते रहने में मजेदारी महसूस करने की प्रक्रिया ‘शुद्ध सांस्कृतिक’ लगती, मानो इस संस्कृति की ‘राजनीति’ ही न हो!

इंतजार की इसी मधुर राजनीति के चक्कर में साठ साल कट गए. कितना अद्भुत समय रहा जब ‘इंतजार और अभी और अभी और अभी’ की टेक पर इंतजार करते वक्त गुजरता जाता. ‘संपत्ति के ऊपर से नीचे की ओर रिसने’ की सैद्धांतिकी इंतजार करवाती रहती. नेहरू और इंदिरा के इस इंतजारवादी इंतजाम से आजिज आकर ही लोहिया ने कहा था कि ‘जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं किया करतीं’.

जाहिर है कि ‘इंतजार’ का सुरीलापन नाराजी में बदला, सीन बदला. लोग गाने लगे, ‘हक मांगते हैं अपने पसीने का, अधिकार हमें भी है जीने का!’ इंतजार से उबी पीढ़ी जिद करने लगी. कुछ जिदें बढ़ीं कि और कब तक इंतजार करें और फिर ‘इंतजार की घड़ियां खत्म हुई’ का आश्वासन दिया जाने लगा, जैसे कि अमीन सयानी कहते हों कि ‘अब आपके सामने पेश है फलां आइटम!’

अब सब कुछ इतना बदल गया है कि ‘इंतजार’ शब्द ही शब्दकोश से निकल गया है. इसे ‘तकनीकी क्रांति’ और उसके बोध ने भगाया है. आज  संसार एक क्लिक में हाजिर है. इंतजार सिर्फ एक ‘एप्स’ भर दूर है. दुनिया इतनी सिकुड़ गई है जितना कि एक मोबाइल. वह सचमुच आपकी मुठ्ठी में है. जिस तीव्र गतिशीलता, जिन ग्लोबल स्पृहाओं और जिस प्रकार की तुरंता  कनेक्टिविटी के वातावरण में नई पीढ़ी रहती है, जिसके उदाहरण हमारे मीडिया में भरे पडे हैं, जो हर घर के भीतर के वातावरण में अपने स्मार्टत्व से जीत दर्ज कर चुके हैं, उस पीढ़ी को किसी का इंतजार नहीं है.

यह मोबाइल और मोबिलिटी का तत्व है जिसने लंबे इंतजार को खत्म करने की स्थितियां बना दी हैं. इक्कीसवीं सदी के इस दूसरे दशक में कोई किसी का इंतजार नहीं करता. उसके पास स्पीड है, फ्री टॉक टाइम है. वह एक मोबाइल से वह सब कुछ तुरंत कर सकता है.

 याद करें उस विज्ञापन में एक सुपुत्र को जिसके माता, पिता और बहन डाइनिंग टेबिल पर बैठे खाना खाने को उद्यत हैं, छुट्टी का दिन है, दफ्तर नहीं खुले हैं, बिल की डेट निकल न जाए इसके लिए पिता पुत्र से पूछते हैं कि बिल जमा कर दिया न? बेटा उसके जबाव में कुछ नहीं कहता बल्कि अपने झूले पर झूलता रहता है और अपने स्मार्टफोन में कुछ करता दिखता है, फिर सुस्त और लापरवाह आवाज में पिता की ओर मुंह किए बिना ही कहता है कि बिल का पेमेंट तो हो गया. पिता पूछता है- मगर कैसे? बेटा वहीं झूले पर झूलते हुए अपने मोबाइल को हौले से दर्शाता है यानी कि इससे कर दिया. इस स्मार्टनेस को देख बहन पिता की नासमझी पर चुपके से मुस्काती है. बेटे के इस पेमेंट कौशल को देख मां भी मुस्काती है और पिता इस सबको देख अपनी झेंप मिटाता है. विज्ञापन मोबाइल की घर बैठे पेमेंट भेजने की बहुकलात्मक लीला का गान करता है.

यह गतिवान का समय है, मोबाइल समय है, तीव्र स्पीड की गतिमयता यानी मोबिलिटी का समय है यानी कि रीयल टाइम में होने करने का समय है. काम करने में आने वाली उलझन और जटिलताओं का काम तकनीक द्वारा जीता जा चुका है. यह विश्वास इतना प्रबल है कि नई पीढी उसी में रमती है. लोहिया की जिंदा कौमें पांच साल इंतजार करती थीं या कि नहीं करती थीं, लेकिन इतना तय है कि यह नई पीढ़ी अब पांच महीने भी इंतजार नहीं कर सकती. वह इंस्टेंट पीढ़ी है, एकदम से तुरंतावादी. तेज रफ्तार में जीने वाली. और इस तेजी का पूरा इंतजाम भी तो है. उसकी हर बात स्मार्ट है: स्मार्ट शहर, स्मार्ट सड़क, स्मार्ट मकान, स्मार्ट कार्ड, स्मार्टफोन, स्मार्ट गाड़ी, तुरंता भोजन और स्मार्ट लव. इस स्मार्टनेस के पास दिल है तो वह भी बड़ा स्मार्ट है. दिल है जो दिलासा में नहीं रहता. उसे चाहिए हर बात तुरंत, हर चीज पारदर्शी. उससे जो कहा है उसे करो, नहीं तो मरो. आप अगर इस स्मार्ट पीढ़ी से उसका स्मार्ट लव छीनेंगे तो वह आपके पास क्यों आएगी!

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