विकास के पैमाने पर पर्यावरण

Last Updated 03 Sep 2014 12:29:32 AM IST

एशियाई विकास बैंक की ‘असेसिंग द कॉस्ट ऑफ क्लाइमेट चेंज एंड एडाप्टेशन इन साउथ एशिया’ की हालिया रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन से पैदा होने वाले आर्थिक संकट को उजागर किया गया है.


विकास के पैमाने पर पर्यावरण

रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन के खतरे के बावजूद यदि वैश्विक व्यवहार में परिवर्तन नहीं आता है तो भारत समेत उसके पड़ोसी देशों की अर्थव्यवस्था को सबसे ज्यादा नुकसान उठाना पड़ेगा. अनुमान है कि इसकी वजह से 2050 तक भारत के सकल घरेलू उत्पाद को वार्षिक रूप से औसतन 1.8 फीसद की आर्थिक क्षति होगी. अन्य पड़ोसी देशों को भी लगभग इतनी ही आर्थिक हानि उठानी पड़ेगी.

साथ ही यदि 2100 तक हम वार्षिक तापमान वृद्धि में दो फीसद की कमी कर लेते हैं तो यह क्षति दर दो प्रतिशत से कम हो पाएगी. रिपोर्ट कहती है कि यदि वि के विकास की रफ्तार मौजूदा स्तर पर रही तो जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने के लिए दक्षिण एशिया में अब से लेकर 2100 तक प्रतिवर्ष करीब 73 अरब डॉलर यानी औसतन सकल घरेलू उत्पाद की करीब 0.86 प्रतिशत राशि व्यय करनी होगी. इसके विपरीत सचेत प्रयासों से तापमान वृद्धि में ढाई डिग्री सेल्सियस की कमी कर लें तो इसके प्रभाव से बचाव के लिए खर्च होने वाली राशि 40.6 अरब डॉलर तक ही होगी जो सकल घरेलू उत्पाद का करीब 0.48 प्रतिशत होगी.

आज वैश्विक तापमान में प्रति दशक लगभग 0.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो रही है. इसका प्रमुख कारण है कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस जैसे जैव ईधन का अंधाधुंध उपयोग और जंगलों की बेहिसाब कटाई. इस कारण वायुमंडल में निरंतर कार्बनडाई ऑक्साइड की मात्रा बढ़ती जा रही है. परिणामस्वरूप पृथ्वी का वायुमंडल गर्म होता जा रहा है. इसके दुष्परिणाम हमें ध्रुवीय क्षेत्र की बर्फ पिघलने और समुद्री जल स्तर बढ़ने जैसी गंभीर समस्या के रूप में भोगने पड़ सकते हैं. जिससे कहीं अति वृष्टि तो कहीं अनावृष्टि से बाढ़ और सूखे की विभीषिका भोगनी पड़ेगी. वन्य जीवों के अस्तित्व पर भी गंभीर संकट आएगा. अभी हम खाद्य संकट की जिस स्थिति से जूझ रहे है, भविष्य में उससे कहीं ज्यादा जूझेंगे. जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप फसलों की उत्पादकता प्रभावित होगी.

पृथ्वी पर प्रयोग किये जा रहे विनाशकारी रसायनों और कई तरह से उत्सर्जित गैसों से ओजोन परत का निरंतर क्षय हो रहा है. ओजोन परत सूर्य से आने वाली घातक पराबैगनी किरणों को रोकने का काम करती है. माना जा रहा है कि पृथ्वी के ऊपर विशेष कर मध्य व उच्च अक्षांक्षों में 25 किलोमीटर से कम ऊंचाई पर स्थित ओजोन परत  की मोटाई लगभग 10 प्रतिशत प्रति दशक की दर से  घटती जा रही है. समझा जाता है कि ओजोन परत में एक प्रतिशत के ह्रास से त्वचा कैंसर के मरीजो की संख्या एक से तीन प्रतिशत तक बढ़ जाती है. इस लिहाज से पिछले एक दशक में यह संख्या बढ़ कर 50 प्रतिशत तक पहुंच गई है.

पृथ्वी और हमारा पर्यावरण तभी तक बचा रह सकता है जब तक इस पर उपलब्ध प्राकृतिक संसाधन और पारिस्थितिकी तंत्र अपने मूल स्वरूप में सुचारू रूप से बने रहेंगे. वर्तमान में हमारे पर्यावरण के जरूरी घटक वायु, ध्वनि, जल, मृदा आदि कई तरह के प्रदूषण से संकटग्रस्त स्थिति में पहुंच चुके हैं. जल संकट की स्थिति के साथ जल प्रदूषण की स्थिति भी जटिल हो चुकी है. पृथ्वी पर उपलब्ध कुल जल का केवल 0.8 प्रतिशत ही मानव के पीने योग्य है और दुर्भाग्य से वह भी प्रदूषित होता जा रहा है. जंगलों की संख्या में तीव्र ह्रास से पर्यावरणीय संकट पैदा हुआ है. मृदा प्रदूषण की स्थिति भी विकराल होती जा रही है.

पृथ्वी पर बढ़ते प्रदूषण और जलवायु परिवर्तनों के कुप्रभाव से बचने के उपायों पर विचार करने केलिए 1997 में जापान के क्योटो में विश्वभर के पर्यावरण वैज्ञानिक एकत्र हुए. उन्होंने पृथ्वी पर बढ़ते कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा कम करने की आवश्यकता पर जोर दिया. बैठक को क्योटो प्रोटोकॉल नाम दिया गया जिसे एक अंतरराष्ट्रीय समझौता माना गया. इसके तहत निर्धारित किया गया कि सभी औद्योगीकृत देश अपने यहां ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन की मात्रा में कटौती करेगे लेकिन परिणाम कुछ नहीं निकले. यूनाईटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज ने भी जलवायु संकट रोकने हेतु व्यापक दिशा निर्देश जारी किये हैं.

भारत के संदर्भ में देखें तो यहां पर्यावरण संकट के लिए कई तरह से व्यापक उपाय व योजनाएं लागू  हैं. 12 वीं पंचवर्षीय योजना के तहत इसके प्रति एक अलग अध्याय ही जोड़ दिया गया था. 4 जून 2011 को भारत सरकार ने हरित मिशन योजना की शुरुआत की थी. जिसके तहत वृहद बजटीय प्रावधान था. इसके अलावा पर्यावरण के प्रति आम जनता में जागरूकता हेतु 2008 में खासतौर से पृथ्वी ग्रह के संरक्षण के लिए कई तरह की गतिविधियां आयोजित की गई. पर्यावरणीय चिंताएं अकेले किसी देश की समस्या नहीं हैं और न कोई अकेला देश इनसे निपटने हेतु उपाय कर सकता है. यह वैश्विक समुदाय की जिम्मेदारी है कि सभी देश मिल जुलकर इस समस्या से निपटने के रास्ते तलाशें और योजनाएं क्रियान्वित करें. दुर्भाग्य से पर्यावरण सुरक्षा पर आयोजित किसी भी वैश्विक सम्मेलन और वार्ताओं के दौरान इसके लिए ईमानदार प्रयत्न नहीं दिखा है.

वास्तविकता यह है कि विकास के लिए पर्यावरण के साथ बेहतर तालमेल बेहद जरूरी है. आरम्भ में विकास और पर्यावरण को दो अलग-अलग अवधारणा के रूप में देखा जाता रहा लेकिन बाद में महसूस किया गया कि विकास व पर्यावरण को अलग-अलग रखकर नहीं चला जा सकता. दोनों के बीच तालमेल से ही दुनिया का भला होगा. र्वल्ड डेवलपमेंट रिपोर्ट 1992 के डेवलपमेंट एंड द एनवायरमेंट में तर्क दिया गया है कि आर्थिक विकास और ठोस पर्यावरणीय प्रबंधन दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं. पर्याप्त पर्यावरणीय सुरक्षा के बिना विकास का कोई महत्व नहीं है और बिना विकास के पर्यावरण निर्थक होगा. पर्यावरण और विकास पर विश्व आयोग की रिपोर्ट में स्थायी विकास की परिभाषित संकल्पना ‘आवर कॉमन फ्यूचर 1987’ में स्पष्ट रूप से विकास के लक्ष्यों को पर्यावरणीय सुरक्षा से जोड़ने व समन्यवयन पर जोर दिया गया है.

कुल मिलाकर ऐसी व्यवस्था करनी होगी कि विकास भी हो और पर्यावरण भी सुरक्षित रहे. पर्यावरण जागरूकता व संरक्षण के ईमानदार प्रयास पंचायत स्तर से शुरू होते हुए देश और विश्वव्यापी स्तर पर होने चाहिए. औद्योगीकरण के साथ हम यदि ग्रीन ग्रोथ को साकार रूप देंगे तो विकास और मानव अस्तित्व को लम्बे समय तक कायम रख सकते हैं. हमारे सामने विकास बनाम पर्यावरण का मुद्दा है. दोनों में से किसी को त्यागना संभव नहीं इसीलिए समन्वित दृष्टिकोण के साथ  वैश्विक हितों को साझा किया जाना चाहिए.

गौरव कुमार
लेखक


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