आधी आबादी के लिए निर्मम हमारे शहर
कुछ समय पहले एक कानूनविद ने एक राष्ट्रीय अखबार में लिखे अपने लेख के जरिए यह समझाने की कोशिश की थी.
आधी आबादी के लिए निर्मम हमारे शहर |
कि हमारी रहने की जगहें, हमारे शहर या नगर किस कदर जेंडरीकृत हैं अर्थात स्त्री-पुरुष भेद पर टिके हैं. छोटी-छोटी बातों का उल्लेख करके उन्होंने समझाया था कि किस तरह पितृसत्तात्मक छाप लिए शहर स्त्री की गतिशीलता को नियंत्रित करते दिखते हैं. उदाहरण के लिए स्ट्रीट लाइट का न होना किसी के लिए सामान्य नागरिक सुविधाओं की कमी का एक हिस्सा हो सकता है, लेकिन वह आधी आबादी को अंधेरा होते ही घरों में कैद होने के लिए मजबूर कर सकता है.
हाल में प्रकाशित एक खबर के अनुसार दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव की अध्यक्षता में बने एक कोर ग्रुप की रिपोर्ट- जिसका गठन सोलह दिसम्बर 2012 के निर्भया कांड के बाद हुआ था और जिसने शहर के पूरे वातावरण को सुरक्षित बनाने के लिए सेफ्टी आडिट किया था और जनता से सुझाव भी मांगे थे, के निष्कर्ष देख कर यही लगता है कि शहर की बुनियादी सुविधाओं में कोई गुणात्मक फर्क नहीं पड़ा है. बीते जनवरी को इस कोर ग्रुप ने आउटर रिंग रोड तथा शहर के अन्य संवेदनशील क्षेत्रों का जायजा लिया था कि सुविधाएं कैसी हैं! एवज में न उन्हें स्ट्रीट लाइट ठीक दिखी, न फुटपाथ और न ही शौचालय दुरुस्त मिले.
इस कोर ग्रुप का मकसद यही था कि पुलिस की कार्रवाई तथा महिलाओं पर अत्याचार के मामलों में अत्यधिक सतर्कता बरतने के अलावा यह जाना जाए कि शहर के पूरे वातावरण को सुरक्षित बनाने के लिए क्या-क्या करने की जरूरत है. इस समूह ने दिल्ली डेवलपमेंट आथारिटी की युनाइटेड ट्रैफिक एंड ट्रान्स्पोर्टेशन इन्फ्रास्ट्रक्चर सेन्टर, दिल्ली पुलिस, स्वास्थ्य विभाग और परिवार कल्याण विभाग आदि से महिला सुरक्षा बेहतर करने के लिए ठोस सुझाव भी मांगे थे. डीडीए के उपरोक्त सेंटर ने कुछ साधारण सुझाव दिए थे जिसमें सड़क पर पर्याप्त रोशनी, पर्याप्त शौचालय, सड़कों पर फेरीवालों को बढ़ावा देना ताकि वह ‘सड़कों पर निगरानी’ कर सकें, सुरक्षित बस स्टैंड और पैदल चलने के लिए ठीक फुटपाथ. उसने यह भी सुझाव दिया था कि सड़कों पर 24 घंटे गतिविधियां चलती रहने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है. इसके अलावा दिल्ली के कुछ इलाकों को उसके द्वारा किया गया सुरक्षा आडिट प्रस्तुत करके इन ‘संवेदनशील’ इलाकों के लिए ‘माइक्रोप्लानिंग’ की भी बात कही थी.
प्रश्न है कि जबकि हजारों की तादाद में लोगों ने सड़कों पर उतर कर महिलाओं की सुरक्षा बेहतर करने पर जोर दिया हो, तब भी सरकारी महकमे पुराने र्ढे पर ही क्यों चल रहे हैं. न्यूनतम सुझावों पर भी अमल क्यों नहीं हो रहा है? क्या शीत निद्रा से जगने के लिए शासन-प्रशासन के फिर निर्भया जैसे कांड का इन्तजार है! इस संदर्भ में जब जिम्मेदारी चिह्नित करने की बात आएगी तो आम तौर पर एक महकमा दूसरे महकमे
पर दोषारोपण करता मिलेगा. मगर बुनियादी बात यही दिखती है कि समाज में निर्णायक पदों पर में बैठे लोगों में इस बात का एहसास नहीं बन पाया है कि शहर पर पड़ी पितृसत्ता की छाप आधी आबादी की गतिशीलता को काबू में रखने का जरिया बनती है और इसलिए आम तौर पर आलम यही होता है कि अंधेरा होते ही महिलाओं का सड़क पर नजर आना मजबूरी की तरह देखा जाता है. जब केन्द्र में एक जिम्मेदार मंत्री निर्भया कांड की वजह से ‘देश के टूरिज्म क्षेत्र के नुकसान’ के प्रति ज्यादा चिंतित दिखते हों, तो फिर मंत्रियों के मातहत नौकरशाहों से क्या उम्मीद की जा सकती है?
सार्वजनिक दायरे में महिलाओं को सुरक्षा देने में जब भी सरकारी नाकामी पर चर्चा होती है, तो उनके लिए विशेष बस, ट्रेन या विशेष जगह की व्यवस्था की जाए. बेशक ऐसे सुझाव महिलाओं को सुकून देते हैं लेकिन ऐसे इंतजाम सीमित मागरें पर ही संभव हो सकते हैं. जहां सार्वजनिक दायरे में औरतें अधिक संख्या में उपस्थित नहीं हैं वहां भी ऐसी सुविधाएं दी जानी चाहिए ताकि सार्वजनिक दायरे में उनके प्रवेश के लिए
प्रोत्साहन मिले, सुरक्षा की गारंटी का एहसास हो. हिंसा से उनके बचाव के लिए दो तरीके हैं या तो महिलाओं के लिए अलग सुरक्षित स्थान बनाया जाए या सभी स्थानों को सुरक्षित किया जाए. औरत पर जब-जब हिंसा की मार पड़ती है, तब-तब उसके सुरक्षा के इंतजामों का लेखा-जोखा होता है. जैसे पिछले साल लड़कियों के स्कूलों में पुरुष शिक्षकों द्वारा यौन उत्पीड़न की घटना सामने आते ही उन्हें स्कूलों से हटाने का निर्देश आया. जब शौचालयों का उनके उत्पीड़न के लिये इस्तेमाल किया गया तो महिला शौचालयों पर ताला जड़ दिया गया. कार्यस्थलों की असुरक्षा के कारण उन्हें रात की पाली में काम पर नहीं रखा जाता था.
उनके होस्टलों के गेट पर पहरेदार तैनात किए जाते रहे हैं. अधिसंख्य महिला छात्रावासों में अंधेरा होने के पहले ही अपने कमरों में पहुंच जाना होता है.
कुछ साल पहले तक ट्रेन में महिला कूप होता था लेकिन जब वह भी असुरक्षित हो गया तो खतम किया गया. उसमें चलती ट्रेन में असामाजिक तत्व जबरन घुस जाते थे और ट्रेन के यात्री कुछ नहीं कर पाते थे.
बाद में महिला बोगी तथा फिर स्पेशल महिला ट्रेन भी चलायी गयी. फौज जैसी नौकरियां तो महिलाओं के लिए सुरक्षित ही नहीं ही मानी गयीं, इसलिए उन्हें लिया भी गया तो सीमित समय के लिए (हाल में ही आदेश जारी हुआ है कि सेना में उन्हें स्थायी कमीशन दिया जाए.) महिलाओं को उन्हीं क्षेत्रों में तैनात किया गया जिन्हें ‘महिला सुलभ’ समझा जाता था. अर्थात जहां-जहां समस्या आयी, वह क्षेत्र प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से महिलाओं के लिए वर्जित घोषित हो गया. सार्वजनिक स्थलों पर घूमने में कानूनन किसी पर कोई पाबंदी नहीं हैं, लेकिन अघोषित फरमान जरूर होता है कि महिलाएं रात में सड़क पर न निकलें. बेशक इसके लिए कानून नहीं है लेकिन समाज का संकेत यही होता है कि उल्लंघन का खमियाजा भुगतना पड़ सकता है. शहर के इन्फ्रास्ट्रक्चर में यथास्थिति का जो सिलसिला नीति-निर्माताओं व अमलकर्ताओं के गठबन्धन से चल रहा है, उसका साफ संदेश है कि स्त्रियां चहारदीवारी से बाहर न निकलें.
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