चिंतन : आस्तिकता केवल भाव नहीं, स्वभाव

Last Updated 24 Aug 2014 12:12:28 AM IST

प्रकृति आस्तिक जान पड़ती है. प्रकृति अरबों बार अरबों जीव रच चुकी.




हृदयनारायण दीक्षित, लेखक

हरेक सृजन में कुछ न कुछ अधूरा रह जाता होगा. सो उसका मन नहीं भरा. हर बार नए सिरे से नई सृष्टि. नया सृजन. वष्रा की हरीतिमा में फिर-फिर हरियाले कीट-पतिंग. बसंत, शरद, हेमंत बारंबार. पुनर्जीवन पुनर्नवा फूल, फल वनस्पति, प्राणी. सोचता हूं कि बार-बार क्यों होता है ऐसा सृजन, वैसा ही नन्हा चूहा, बंदर का बच्चा या बिल्ली का. निदरेष, निष्कलुष, अनासक्त, लोभ मुक्त शिशु. बार-बार वैसा ही लेकिन थोड़ा भिन्न. प्रकृति अपने सृजन से असंतुष्ट ही रहती है. जीवन इसीलिए हर बार नया है और अद्वितीय है. चित्त प्रश्नाकुल हो जाता है.

प्रकृति आस्तिक ही है. उसे विश्वास है कि कोई सृजन तो पूरा होगा ही. ऐसा देखते हुए नास्तिकता धरी रह जाती है. मिट्टी का स्वाद खारा-नमकीन है. इसी मिट्टी से उगा गन्ना, केला, अंगूर या आम, अमरूद शक्कर से भरापूरा. कहां से आया यह मधु, क्या पृथ्वी के रस-तल से या आम की गुठली, अमरूद के बीज में ही शक्कर भरीपूरी है. प्रकृति का बहुत बड़ा भाग रहस्यपूर्ण है. मधुमयता का स्रेत गहन अध्ययन और विवेचन से भी नहीं पता लगता. सो नास्तिक होने का स्वप्न भहरा जाता है. चित्त आस्तिकता में ही अज्ञात की पगध्वनि सुनता है.

भारतीय आस्तिकता और अन्य देशों की आस्तिकता में अंतर है. अन्य देशों में ईश्वर विश्वास आस्तिकता है और ईश्वर पर अविश्वास नास्तिकता. भारत में ईश्वर अविश्वासी को नास्तिक नहीं कहा जाता. वेद के निंदक ही यहां नास्तिक हैं, वेद के प्रति आदर आस्तिकता है. वेदों में भरीपूरी प्रकृति है और पुलकित जिज्ञासु मानवता. वेदों में धरती माता है और आकाश पिता. यहां कोई अंधविश्वास नहीं. इस आस्तिकता का मूल विवेक है. प्रकृति सदा से है. संभवन और बार-बार संभवन इसका गुण है.

प्रकृति का होना सत्य है. यह अस्तित्वगत है. अस्तित्व की सहज स्वीकार्यता ही आस्तिकता है. लेकिन नास्तिकता का लोभ बड़ा है. बहुत झटके से स्वयं को नास्तिक कहने में स्वाभिमान, दंभ और अहंकार की साझा ऊर्जा का सुख दूसरा ही है. मन इसीलिए डोलता है. कभी-कभी लगता है कि प्रत्यक्ष भौतिक ही सत्य है. अप्रत्यक्ष और पराभौतिक बकवास हैं. जैसे आस्तिकता के विरोध में तमाम तर्क हैं, वैसे ही नास्तिकता के विरोध में भी. अंतध्र्वनि की अनुभूति ऐसी ही है.

नास्तिकता सोचा-समझा युक्तिपूर्ण विचार है और विचार मनतरंग है. मनतरंग स्थायी होती नहीं. प्रशिक्षित और तार्किक मन से ही किसी विचार को अपने भीतर पालना होता है. विचार की मैत्री मजेदार है. पहले उसे पालो, पोसो. वह भाग निकलता है. लेकिन बार-बार पालने-पोसने की लत के कारण वह स्वामी बन जाता है. फिर छोड़ना भी चाहो, तो साथ नहीं छोड़ता.

विचारशील लोग मुंह लटकाए बैठे रहते हैं. क्या करें, विचार की घोषणा कर चुके हैं. बदले तो बदनामी. पकड़े रहें तो हृदयतंत्र के द्वार बंद. प्रकृति विचार है नहीं. प्रकृति में प्रेमरस है, यही भाव में आता है. विचार भाव का रास्ता रोकता है. नास्तिकता विचार है लेकिन आस्तिकता विचार नहीं प्रगाढ़ भावना है. केवल भाव नहीं स्वभाव है और स्वभाव को ही गीता के कृष्ण ने अध्यात्म बताया है- स्वभावो अध्यात्म उच्यते. प्रबुद्धों के मन में प्राय: विचार और भाव की टक्कर होती रहती है. विचार रूखा, सूखा और रसहीन. भाव जीवंत, रससिक्त, प्रगाढ़ और मधुमय.

आस्तिकता पर संशय विद्यार्थीवृत्ति है तो नास्तिकता पर भी. नास्तिकता निर्णय है. प्रकृति और जीवन के रहस्य वैज्ञानिक निष्कषरे में भी पूरे नहीं खुलते. मनुष्य का मन ही बड़ा रहस्यपूर्ण है. क्या मन- माइंड का केंद्र मस्तिष्क ही है! विचार बाहर से आते हैं, लेकिन नितांत नए विचारों का स्रेत क्या है! अंतरराष्ट्रीय ख्याति के एक विद्वान चिकित्सक से वार्ता हो रही थी. उन्होंने भी माना कि मस्तिष्क का बहुत बड़ा भाग अब भी शोध का विषय है. प्रेम या भावुकता का केंद्रक न्यूक्लियस अब भी अज्ञात है. वैज्ञानिक प्रेमी के शरीर में विशेष रसायन का बनना बताते हैं. प्रश्न है कि क्या आस्तिकता भी कोई रासायनिक गतिविधि है! भारतीय आस्तिकता विवेक और भावरस का संगम हैं.



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