आसान नहीं मिलावट रोकना

Last Updated 01 Aug 2014 12:53:56 AM IST

देश में मिलावट के गोरखधंधे ने अपने पांव बहुत दूर तक तरह फैला लिए हैं और उस पर लगाम लगाना आसान नहीं है.


आसान नहीं मिलावट रोकना

खाद्य पदार्थों में मिलावट रोकने और उनकी गुणवत्ता बनाये रखने के लिए खाद्य सुरक्षा विभाग द्वारा बीते साल की गई कार्रवाइयों की जानकारी से पता चलता है कि देश में मिलावट के गोरखधंधे ने अपने पांव बहुत दूर तक तरह फैला लिए हैं और उस पर लगाम लगाना आसान नहीं है. खाद्य सामग्रियों के नमूनों की जांच में देश भर में दुकानों, रेस्तरां और फास्ट फूड विक्रय केंद्रों पर फीसद वस्तुएं मिलावटी अथवा घटिया गुणवत्ता की पायी गयी हैं. पिछले साल खाद्य सुरक्षा अधिकारियों की ओर से प्रयोगशालाओं को भेजे गये कुल नमूनों में से 46, 233 की जांच में 9,265 में या तो मिलावट पायी गयी अथवा उनकी गलत ब्रांडिंग की गयी थी.

अदालत में सबसे ज्यादा मामले (2,930) उत्तर प्रदेश के दुकानदारों के खिलाफ चले जिनमें 1,919 का दोष साबित हुआ है. उसके बाद महाराष्ट्र में दर्ज 2,557 मामलों में 66 लोगों को दोषी पाया गया है. उसके बाद हरियाणा में 260 में 166, उत्तराखंड में 122, झारखंड में 99, बिहार में 90 लोग दोषी पाये गये. राजधानी दिल्ली में इस तरह के 61 मामले दर्ज हुए हैं. इन खाद्य पदार्थों में दूध, तेल और मसालों से बनने वाले व्यंजन शामिल हैं.

दुर्भाग्य से दूध से बनने वाले सामानों लेकर अनाज, दलहन, तिलहन, मसाले, सब्जियों वगैरह सभी सामानों में मिलावट आम बात है. यह विडम्बना ही है कि अमूमन घरों में उपभोक्ता को मिलावट का एहसास हो जाता है फिर भी वह  सामान खरीदने के लिए मजबूर होता है. त्योहारों के मौके पर तो मिलावटखोरों के पौ बारह हो जाते हैं. ग्रामीण इलाकों से दूधिये रेलगाड़ियों में रोजाना बड़े-बड़े कंटेनरों में मिलावटी दूध बेचने के शहर में ले आते हैं लेकिन संबंधित विभाग को उन पर छापा मारने का अवसर कभी-कभार ही मिल पाता है?

वास्तव में देखा जाए तो जनसंख्या के अनुपात में जिस गति से खाद्य पदार्थों में मिलावट का गोरखधंधा पैर पसार रहा है, उस हिसाब से देश भर में इसके लिए नियुक्त कर्मचारियों की संख्या नाकाफी लगती है. कानूनों की जहां तक बात है तो मिलावट रोकने के लिए कई देशों के कानूनों का अध्ययन करने के बाद खाद्य अपमिशण्रनिवारक अधिनियम 1954 व प्रिवेंशन ऑफ फूड एडल्टरेशन एक्ट 1955 बनाया गया. इसके अलावा स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े हुए प्रिवेंशन ऑफ फूड एडल्टरेशन रूल्स 1955, जैसे दूसरे कानून भी हैं लेकिन केवल कानून बना दिए जाने से समस्या का समाधान नहीं होने वाला है. उसके लिए ईमानदार कोशिश पहली शर्त है.

अफसोस की बात है कि दशकों पहले बने कानून में आज भी ज्यादातर प्रावधान जस के तस हैं. जबकि समय के साथ उनमें संशोधन जरूरी लगता है. इतना ही नहीं, उसे भी सभी राज्यों में समान महत्व देते हुए लागू नहीं किया गया है. जारी आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि देश में व्यवस्था में गड़बड़ी के चलते उन कानूनों के पालन की स्थिति भी बहुत खराब है. यह भी कि देश के व्यापारी वर्ग ने पकड़ में आने से बचने के कई तरीके खोजे हुए हैं.

इस दिशा में मिल रही असफलता के कई दूसरे कारण भी हैं. नमूनों की जांच के लिए प्रयोगशालाओं के साथ ही वहां कार्यरत वाले कर्मचारियों की भारी कमी  है. उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में तो कुछ साल पहले तक खाद्य सुरक्षा अधिकारियों को काम करने के लिए कार्यालय तक की व्यवस्था नही थी. उन्हें जिला मुख्य चिकित्सा अधिकारी के कार्यालय के अधीन काम करना पड़ता था.

संबंधित दोषियों को सजा दिलाने संबंधी कानूनी प्रक्रिया में भी बड़ी अड़चन है. आज भी उन्हें अपने काम के नमूने भेजने के बाद अदालत में मामलों की पैरवी खुद करनी पड़ती है. छापे अथवा दुकानदारों से सामान का नमूना मांगने के दौरान अक्सर उनकी झड़प हो जाती है. इसके लिए उन्हें विक्रेताओं की ओर से धमकियां मिलना और बदसलूकी का प्रयास आम बात है. उन्हें इतना संवेदनशील काम करने के लिये प्रशासन की ओर से पर्याप्त सुरक्षा मुहैया नहीं करायी जाती है.

लाखों की संख्या में चलने वाले प्राथमिक, उच्च प्राथमिक और इंटर कॉलेजों में बनने वाले मिड डे मील एमडीएम के काम में भी गुणवत्ता नियंत्रण की जिम्मेदारी सौंपी जा रही है. लेकिन अपेक्षित संसाधनों और कार्य की जटिलता के हिसाब से व्यवस्था को सरल बनाने अथवा उसका विकेंद्रीकरण करने पर जोर नहीं दिया जा रहा है. ऐसे हालात में राष्ट्रीय स्तर पर मिलावटी खाद्य पदार्थों पर रोक लगाना और लोगों को शुद्ध और सही तौल पर सामान मुहैया कराने का काम असंभव लगता है.

पद्माकर त्रिपाठी
लेखक


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