मत कीजिए विज्ञान की अनदेखी

Last Updated 25 Jul 2014 12:59:13 AM IST

केंद्रीय बजट में सरकार ने विज्ञान के विकास, शोध परियोजनाओं की बढ़ोत्तरी तथा अनुसंधान कार्य के लिए शोध फंड संगठन बनाने की बात कही है.




मत कीजिए विज्ञान की अनदेखी

इस संगठन के जरिए छात्रों को शोध परियोजनाओं के लिए सहायता दी जाएगी. फिलहाल देश में प्रौद्योगिकी विकास कोष के नाम पर सौ करोड़ रुपये आवंटित किये गए हैं. पांच नए आईआईटी और पांच आईआईएम बनाने की घोषणा भी हुई है लेकिन बजट में देश में बुनियादी विज्ञान के विकास के लिए कुछ खास नहीं है. कुल मिलाकर सरकार ने  विज्ञान और तकनीक के पूरे क्षेत्र के लिए बजट में जीडीपी का लगभग एक प्रतिशत दिया है जो उम्मीद से काफी कम है. यह उम्मीद से कम इसलिए भी कहा जाएगा क्योंकि  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विज्ञान और तकनीक को बढ़ावा देने की बात कई मंचों पर कह चुके हैं.

पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने भारतीय विज्ञान कांग्रेस समारोह में कहा था कि हमें विज्ञान व प्रौद्योगिकी पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का कम से कम दो फीसद खर्च करना चाहिए. यह सरकार और उद्योग जगत दोनों की तरफ से होना चाहिए. बाकी देशों से तुलना करें तो अमेरिका और चीन सहित दुनिया के तमाम छोटे-बड़े देश  विज्ञान व अनुसंधान के क्षेत्र में बजट बढ़ाते रहे हैं. दक्षिण कोरिया जैसे देश में भी सकल घरेलू उत्पाद का बड़ा हिस्सा विज्ञान क्षेत्र पर खर्च होता है, जिसमें उद्योग जगत का सहयोग भी अहम है.

सरकार द्वारा इस बारे में चिंता तो व्यक्त की जाती रही है लेकिन समाधानस्वरूप वास्तविक धरातल पर कुछ भी क्रियान्वित नहीं हो पाता है. कुल मिलाकर देश में वैज्ञानिक शोधों की दशा अत्यंत दयनीय है. भारत रत्न प्रोफेसर सीएनआर राव भी देश में विज्ञान और तकनीक क्षेत्र के लिए कम बजट देने के लिए सरकार और राजनीतिज्ञों की आलोचना कर चुके हैं. उन्होंने कहा था कि देश में वैज्ञानिक शोध को बढ़ावा देने के लिए जो सरकारी बजट है या जो फंड है, वह काफी कम है. अंतरिक्ष के क्षेत्र में भारत तरक्की जरूर कर रहा है लेकिन वहां के लिए भी समुचित बजट उपलब्ध नहीं है.
अमेरिका की तर्ज पर चीन अपनी क्षमताओं का लोहा मनवा रहा है लेकिन हमारे देश में विज्ञान का मौजूदा बुनियादी ढांचा बेहद कमजोर है.

देश में विज्ञान और शोध की स्थिति का आलम यह है कि विज्ञान में पीएचडी करने वाले हजारों लोगों में से 60 फीसद बेरोजगार हैं. इस स्थिति के लिए हमारे विद्यार्थी या उनके अभिभावक जिम्मेदार नहीं हैं. दरअसल हमारी शिक्षा प्रणाली में ऐसा बोध ही पैदा नहीं किया जा सका है कि विज्ञान को पाठ्यक्रम में शामिल विषय से आगे समझा जाए. शायद यही वजह है कि पिछले 50 सालों में देश एक भी ऐसा वैज्ञानिक पैदा नहीं कर पाया, जिसे पूरी दुनिया उसके अद्वितीय शोध के कारण पहचाने. बतौर वैज्ञानिक भारतीय नागरिक (सीवी रमन) को नोबेल 84 साल पहले (1930 भौतिकी) मिला था. तब से हम भारतीय मूल के विदेशी नागरिकों द्वारा अर्जित नोबेल पर ही खुशी मनाते आए हैं.

आजादी के समय जब देश में संसाधन कम  थे, तब हमारे यहां जगदीश चंद्र बोस, नोबल पुरस्कार विजेता सर सी वी रमण, मेघनाद साहा और सत्येन बोस जैसे महान वैज्ञानिक हुए, लेकिन आज जब संसाधनों की कमी नहीं है, तो देश में विज्ञान शोधों की स्थिति दयनीय बनी हुई है. यह विडम्बना है कि बाद के समय में बुनियादी सुविधाओं के अभाव में हरगोबिंद खुराना, एस. चन्द्रशेखर, अमर्त्य सेन और डॉ. वेंकटरामन रामकृष्णन जैसे देश में जन्मे वैज्ञानिकों ने विदेशों में जाकर उत्ष्कृट कार्य के लिए नोबल प्राप्त किया. देश के ज्यादातर विश्वविद्यालयों में शोध के लिए स्पेस काफी कम रह गया है. उच्च शिक्षा पाने वालों में से केवल एक प्रतिशत छात्र ही शोध करते हैं. किन विषयों पर शोध हो रहा है और समाज के लिए उसकी क्या उपयोगिता है, इसका मूल्यांकन करने वाला कोई नहीं है. इसके उलट यूजीसी के कई सारे ऐसे प्रावधान हैं, जो गंभीर शोधपरक संस्कृति के विकास में रुकावट डालते हैं.

वास्तव में विज्ञान के लिए एक समयबद्ध राष्ट्रीय नीति जरूरी है. विज्ञान के क्षेत्र में विकास के लिए वैज्ञानिकों की जरूरत होगी और वो भी आधारभूत विज्ञान विषयों से जुड़े शोधार्थियों की, इसलिए यह जरूरी है कि मेधावी छात्रों को विज्ञान विषय पढ़ने के प्रति प्रेरित किया जाए. विज्ञान के छात्रों और शोधार्थियों को रोजगार की गारंटी दी जाए. वैज्ञानिक अनुसंधान कल-कल बहती जलधारा की तरह हैं. इनमें सततता जरूरी है एवं स्वायत्तता भी. विज्ञान के विषय में राष्ट्रीय नीति बनाने और उस पर गंभीरता से अमल करने की जरूरत. ऐसा नहीं है कि हमने उपलब्धियां हासिल नहीं की हैं, लेकिन हमारी योग्यता और क्षमता के लिहाज से हम इस मोर्चे पर अब भी काफी पीछे हैं. अंतरिक्ष क्षेत्र में बेशक हमारी कुछ उपलब्धियां भी हैं, लेकिन इससे इतर कोई नई खोज अब तक हमने कहीं की है.  जबकि पड़ोसी देश चीन योजनाबद्ध तरीके से काम कर रहा है. वहां जो भी काम होता है, वृहत और युद्ध स्तर पर होता है. चाहे वह सड़क निर्माण का कार्य हो, अंतरिक्ष कार्यक्रम हो या फिर ओलम्पिक फतह का काम.

चीन ने यह जान और मान लिया है कि बौद्धिक संपदा के विकास और समृद्धि बिना वह 2020 तक अमेरिका को नहीं पछाड़ सकता है. इसी का नतीजा है कि अब वह वैज्ञानिक शोध और विकास के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर जुट गया है. चीन के विश्वविद्यालय और उद्योग बड़े पैमाने पर इस काम को अंजाम दे रहे हैं. इसके लिए अनुकूल माहौल के साथ वहां की सरकार ने अपने खजाने खोल दिए हैं. इसी तरह अमेरिका बुनियादी विज्ञान विषयों की प्रगति का पूरा ध्यान रखता है. उसकी नीति है कि वैज्ञानिक मजदूर तो वह भारत से लेगा पर विज्ञान और टेक्नोलॉजी के ज्ञान पर कड़ा नियत्रंण रखेगा. चीन में भी शिक्षा का व्यावसायीकरण हुआ है, पर बुनियादी विज्ञान और टेक्नोलॉजी की प्रगति का उसने पूरा ध्यान रखा है. भारत को चीन से शिक्षा लेनी चाहिए. ‘वर्ल्ड क्लास’ बनने के लिए बुनियादी विज्ञान का विकास जरूरी है.

संसद या सर्वदलीय बैठक में देश के शीर्ष वैज्ञानिकों से विचार करके 5-5 वर्षों के लिए विज्ञान के लक्ष्य निर्धारित होने चाहिए ताकि जाना जा सके कि देश चरणबद्ध तरीके से आखिर कितना आगे जा सकता है और इसके लिए कितने धन की आवश्यकता होगी? प्रधानमंत्री को वादे पर अमल करते हुए विज्ञान और अनुसंधान के लिए और अधिक धनराशि स्वीकृत करनी चाहिए ताकि वैज्ञानिक अनुसंधान में धन की कमी आड़े न आये और देश में वैज्ञानिक शोध और आविष्कार का सकारात्मक माहौल बने.

शशांक द्विवेदी
लेखक


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