चौबीस गुना सात की सरकार

Last Updated 13 Jul 2014 02:56:22 AM IST

बजट हर साल आता है और लगभग एक ही तरह से प्रसारित होता है. वित्तमंत्री एक ब्रीफकेस लिए आते दिखते हैं, संसद में जब वे बजट का ब्योरा पढ़ते हैं तो वह डेढ़-दो घंटे लंबा चलता है.




चौबीस गुना सात की सरकार

बजट को हर कोई नहीं समझ सकता, उसे वित्त विशेषज्ञ ही समझ पाते हैं. उसका गणित ऐसा ही होता है. उसकी फैलावट कुछ ऐसी टेढ़ी होती है कि एक रुपया भी हटाकर इधर-उधर किया तो पता नहीं कितने करोड़ इधर-उधर हो जाते हैं. हर चीज एक-दूसरे पर असर डालती है इसलिए जब वित्तमंत्री उसे पढ़ते हैं तो सबसे ज्यादा ध्यान से या तो स्टॉक मार्केट सुनता-देखता है क्योंकि उस पर सीधा असर पड़ता है, या पिछले वित्तमंत्री ध्यान से देखते हैं क्योंकि उससे कोई उनका अभिमत  पूछ सकता है.

विपक्ष हमेशा ही सत्ता के बजट को ‘नो बिग आइडिया वाला’ कहता ही है और सत्ता पक्ष मेजें थपथपाता है. शाम तक हर दल अपने विशेषज्ञों को टीवी चैनलों में भेजता है. सत्ता पक्ष वाले बजट की खूबियां बताते हैं और विपक्ष वाले उसके दोष बताते हैं. आम जनता पर हर बजट का असर सीधे पड़ता है लेकिन जनता उसके पेंचोखम, उसकी बारीकियां कभी नहीं समझ पाती. वह उसके असर को महसूस जरूर करती है लेकिन तब जबकि उसे इनकम टैक्स ज्यादा देना पड़ता है या कीमतें बढ़ जाती हैं या घट जाती हैं.

बजट के आने के बाद पूरे साल कोई नहीं याद करता कि अगर महंगाई बढ़ी या वृद्धि दर बढ़ी या घटी तो क्या उसका कारण वही बजट था जिसे पहले सुना-देखा गया था.

बजट जिस वित्तीय पदावली में आता है वह आम जनता की समझ के परे होती है. कोई मीडिया इस मामले में जनता को दक्ष नहीं करता कि जब बजट आए तो जनता की सीधे समझ में आए कि बजट क्या और कैसा है. बजट साक्षरता है ही नहीं. लेकिन ऐसी बातें हर बजट से जुड़ी हैं. हालांकि इस बजट की कुछ खास बातें हैं जो उसकी अंतर्वस्तु से जितनी जुड़ी हैं, उससे कहीं ज्यादा उसकी प्रस्तुति से जुड़ी हैं. इसका गवाह अपना मीडिया है. ये बातें बताती हैं कि यह सिर्फ एक बजट नहीं है कि मंत्री जी ने प्रस्तुत कर दिया और भूल गए.

हमारी समझ से यह बजट एक ‘मीडिया सजग’ बजट है. उसकी प्रस्तुति से पहले उसके निर्माता, प्रस्तुतकर्ता मंत्री और सरकार जनता की मानसिकता को बजट के अनुकूल करने के प्रति बेहद सचेत रहे हैं. आप याद कर सकते हैं कि बजट लाने से कई दिन पहले ही मीडिया में इस बाबत चर्चाएं की जाने लगीं, रेडियो पर विज्ञापन आने लगे कि यह बजट कैसा होगा, यह बजट आपकी आकांक्षाओं के अनुरूप होगा. कई विज्ञापन आग्रह करते थे कि आप इस बजट से क्या चाहते हैं यह बताइए. एक रेडियो चैनल पर जब ऐसा विज्ञापन सुना तो हम समझे कि इस बार का बजट जनता को शामिल करके चलने वाला है. कम से कम ऐसा दावा अवश्य करता है यानी कि जनता की जरूरतें इस बजट में प्रतिबिंबित होने जा रही हैं.

जनता के साथ ऐसी सम्मुखता इससे पहले के किसी बजट में नहीं दिखी. बजट के आने का प्रचार जमकर किया गया. यही नहीं, आम जनता जो चाहती है बताए, ऐसा आग्रह किया गया. जनता ने चाहा हो या न चाहा हो लेकिन प्रकटत: यही लगा कि बजट जनता की अपेक्षाओं से जुड़ा है. बजट और जनता का ऐसा आमना-सामना पहली बार देखा गया.

सरकार की सजगता देखिए कि वह एकतरफा बजट नहीं देना चाहती थी, ‘यह सबसे पूछताछ के बाद बनाया गया बजट है’ ऐसा अहसास भी कराना चाहती थी जिसमें वह काफी हद तक सफल रही.

बजट की भाषा एकदम ‘गद्यात्मक’ थी जो वित्तमंत्री  के मिजाज के अनुरूप थी. इस बार के बजट में न तो किसी बड़े कवि की कविता का उल्लेख था, न किसी पुराने दार्शनिक का या अर्थशास्त्री का उद्धरण था. एक अखबार ने तो संपादकीय लिखकर चुटकी ली कि पिछले वित्तमंत्री चिदंबरम साहब ने अपने बजट में तमिल कवि तिरुवल्लुवर की कविता का सहारा लेकर बजट की आकड़ों से आक्रांत और शुद्ध उबाऊ भाषा को थोड़ा रमणीय बनाने की कोशिश  की थी. जब प्रणब मुखर्जी वित्तमंत्री थे तो वे अक्सर चाणक्य की अर्थनीति से कुछ वाक्य उद्धृत करके अपने बजट को एक बड़े देशज चिंतक से जोड़कर बजट की देशजता पर बल दिया करते थे और मनमोहन सिंह जब वित्तमंत्री थे तो बजट पेश करते समय इकबाल के किसी न किसी शेर से बजट की तिक्तता को सहनीय बनाया करते थे.

ऐसे उदाहरणों को सुनकर सुनने वाले का दिल जरा बहल जाता था. लेकिन नए वित्तमंत्री ने साहित्यिक बातों में जनता को भरमाने की जगह सीधी दो टूक बातें करना जरूरी समझा. ठीक ही था, यह शायद जेटली के मिजाज के अनुरूप ही था क्योंकि वे गंभीर प्रकृति के व्यक्ति हैं. वे आलतू-फालतू बोलते कभी नहीं देखे गए. वे तोल-मोल कर बोलने वालों में से हैं, उनकी टिप्पणियां सटीक होती हैं. आप उनसे सहमत हों या असहमत, वे लफ्फाजी में यकीन नहीं करते.

इस बार का बजट इस मानी में भी भिन्न है कि बजट आकर निकल गया है और लोग हिसाब लगाने में लगे हैं, लेकिन बजट को लेकर अब तक विज्ञापन आ रहे हैं.

स्पष्ट है कि यह सरकार अपने हर काम को अपने ढंग से अच्छी तरह प्रचारित करने के प्रति सचेत है- जनता को और कोई बरगलाए इससे पहले ही जनता को फायदे बताइए और उसे अपने पक्ष में शामिल कीजिए.

ऐसा अब तक किसी सरकार ने नहीं किया लेकिन बीजेपी की सरकार कर रही है. यही उसकी मौलिकता  और अपने काम के प्रति चौकन्नापन है. वह मीडिया के जरिए अपने अनुकूल जनमानस बनाने में लगी है. वह शायद जानती है कि जनता को उसके खिलाफ भरमाया जा सकता है इसलिए जनता से स्वयं ही सीधे संवाद में रहिए.

यह सचमुच चौबीस गुना सात समय की एक रणनीतिक सरकार है.

सुधीश पचौरी
लेखक


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