वोट का जोश और बदलाव के बादल

Last Updated 23 Apr 2014 01:10:45 AM IST

सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में हो रहा भारी मतदान गुणात्मक बदलाव का संकेत है. मतदान के अब तक के चरणों में वोटरों का जोश खूब दिखा.




वोट का जोश और बदलाव के बादल

यह भी अच्छा संकेत है कि छिटपुट घटनाओं को छोड़ मतदान शांतिपूर्ण रहा. निर्वाचन यज्ञ में मत प्रतिशत बढ़ाने में अहम भूमिका युवा मतदाताओं की रही है. मतदान प्रक्रिया में बहुआयामी सुधार के कारगर नतीजे पूरे देश में दिखने लगे हैं. इसका श्रेय निर्वाचन आयोग के साथ मतदान में भागीदारी के लिए प्रोत्साहित करने करने वाली उन अपीलों को भी जाता है जो दृश्य, श्रव्य व मुद्रित प्रचार माध्यमों से निरंतर जारी हैं. अन्ना हजारे के लोकपाल अभियान ने भी मतदाता को मताधिकार के प्रति जागरूक किया है.

पूर्वोत्तर भारत से लेकर देश के हर हिस्से में मत प्रतिशत बढ़ने के जो प्रमाण सामने आ रहे हैं, उसमें बेहतर, पारदर्शी व फोटो लगी मतदाता सूचियों का भी बड़ा योगदान है. चुनाव कार्यक्रम की घोषणा के बाद आयोग ने छूटे रह गए मतदाताओं को अपने नाम का पंजीयन कराने का जो अवसर दिया, उसे भी रेखांकित करना जरूरी है. इस अवसर के मिलने से एक दिन में एक करोड़ लोग मतदाता बने. मतदाता सूची में यह नवीनतम संशोधन एक मिसाल है, जिसे यदि हरेक चुनाव में दोहराया जाता है तो यह लोकतंत्र की सेहत के लिए बेहतर खुराक बनी रहेगी. यही वजह है कि देश में 10 से 20 प्रतिशत तक मतदान बढ़ा है.

इस चुनाव की बड़ी उपलब्धि पाषाण युग की अंतिम जीवित प्रजाति शोंपेन आदिवासियों की भागीदारी हैं. ग्रेट निकोबार में रहने वाले इस समुदाय के करीब 60 सदस्यों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया. आयोग ने इनके लिए जंगल के अंदरूनी हिस्से में मतदान केंद्र बनाया था ताकि वे अपनी प्राकृतिक अवस्था में वोट डालने की आजादी पा सकें. 2011 की जनगणना के मुताबिक इन आदिवासियों की संख्या सिर्फ 229 है. आयोग की यह सराहनीय शुरुआत है. जाहिर है, मतदान में मिली सफलता का आगे विस्तार होगा. लिहाजा इसी अंडमान निकोबार द्वीप समूह में जारवा आदिवासी समूह के जो लोग आदिम आवस्था रह रहे हैं, उन तक भी मतदान की प्रक्रिया पहुंचेगी. ऐसा होता है तो ये लोग एक ऐसे अनूठे अधिकार का अनुभव करने लग जाएंगे जिसके इस्तेमाल के जरिए देश और राज्यों का नेतृत्व चुना जाता है.

नई लोकसभा की तकदीर देश के युवा मतदाता लिखेंगे. इसलिए मतदान का प्रतिशत बढ़ता दिखाई दे रहा है. यह वह मतदान है जो केवल चुनाव में ही नहीं, पूरी लोकतंत्रिक राजव्यवस्था में गुणात्मक बदलाव लाएगा. इस लोकसभा चुनाव में पहली मर्तबा करीब 2.31 करोड़ युवा मतदाता मतदान करेंगे. वैसे कुल युवा मतदाताओं की संख्या 14 करोड़ 93 लाख 60 हजार है. 2009 के आम चुनाव में इन मतदाताओं की संख्या लगभग 10 करोड़ थी. नवीनतम मतदाता सूची के अनुसार देश में कुल 81.45 करोड़ मतदाता हैं. इस अनुपात में युवाओं का मत प्रतिशत 20 फीसद बैठता है जिसका असर 350 लोकसभा क्षेत्रों में है.

हवा का रुख जो भी हो, इस युवा मतदाता समूह की अपनी अहमियत जरूर है. विकास, सुशासन, शिक्षा, रोजगार और राष्ट्रबोध जैसे मुद्दे जहां युवा वर्ग को सकारात्मक मतदान के लिए बाध्य कर रहे हैं, वहीं महंगाई, भ्रष्टाचार, घोटाले और सीमाओं पर घुसपैठ व सैनिकों के सिर कलम कर ले जाने जैसी घटनाएं इस मतदाता समूह में राष्ट्रबोध जगा रही हैं. हालांकि यही वे मुद्दे हैं जो हर मतदाता समूह को प्रभावित करने वाले हैं. युवा मतदाता रूढ़िवादी सांप्रदायिक और जातीय जकड़बंदी से जुदा सोच रखता है.

दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को 28 सीटों पर जीत इसी मतदाता के बूते मिली थी. अखिल भारतीय फलक पर जा सव्रेक्षण आ रहे हैं, उनमें युवाओं का रुझान नरेंद्र मोदी के प्रति ज्यादा दिखाई देता है. क्योंकि संघ और भाजपा के कुशल चुनावी मीडिया प्रबंधन ने मोदी को प्रधानमंत्री के संभावित दावेदारों में अग्रणी और विकासवादी व्यक्तित्व के रूप में घोषित कर दिया है. लिहाजा बढ़े मतदान का एक कारण मोदी भी हैं.

आयोग की सख्ती से चुनाव गुंडा-शक्ति से मुक्त हुए हैं. इस कारण पहले मतदान केंद्रों पर लूटपाट और खून-खराबे के जो हालात बन जाते थे, उनका कमोबेश खात्मा हो गया है. भयविहीन स्थिति के चलते आम मतदाता निसंकोच मतदान करने लगा है. नोटा के विकल्प ने भी मतदाता को आकषिर्त किया है. लिहाजा मौजूदा उम्मीदवारों से निराश मतदाता नकारात्मक मत प्रयोग के लिए घरों से निकलने लगे हैं. सजायाफ्ता लोगों पर चुनाव लड़ने के प्रतिबंध से भी चुनाव प्रक्रिया साफ-सुथरी व भयमुक्त हुई है. इस कारण पिछले पांच साल के भीतर जितने भी चुनाव हुए हैं, उन सभी में मतदान का प्रतिशत बढ़ा है.

मतदान के अनुकूल बना यह वातावरण लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत हैं. यह कालांतर में अल्पसंख्यक समुदायों व जातीय समूहों को वोट बैंक की लाचारगी से मुक्ति दिलाएगा. दलों को भी तुष्टिकरण की राजनीति से छुटकारा मिलेगा. बढ़ा मतदान उन सब मिथकों को तोड़ देगा जो तुष्टिकरण के कारक बने हुए हैं. जाहिर है, मतदाताओं के ध्रुवीकरण की राजनीति को पलीता लगेगा.  

खबरिया चैनलों ने सोलहवीं लोकसभा की चुनाव प्रक्रिया को लंबा खींचा है. यह पिछले एक-डेढ़ साल से मोदी बनाम राहुल के बहाने प्रधानमंत्री थोपने की अनर्गल बहसों में जारी है. दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद इसमें अरविंद केजरीवाल भी शामिल हो गए. यह सही है कि मीडिया की इन्हीं बहसों ने बहुदलीय संसदीय प्रणाली को व्यक्ति केंद्रित करने का काम किया है. इन बहसों से सहमत या असहमत होना अलग बात है, लेकिन बहसों ने मतदाता को मतदान केंद्रों तक जाने को जरूर प्रोत्साहित किया है. सोशल साइट्स पर उम्मीदवारों को लेकर चली होड़ ने भी मतदान की कागजी प्रक्रिया को व्यावहारिक प्रक्रिया में बदलने का काम किया है.

बढ़ा मतदान किसके पक्ष में है, इसका आकलन करना मुश्किल है, लेकिन बदलाव का संकेत इसमें अंतर्निर्हित है. यदि मुकाबला सीधे दो दलों के बीच होता तो इसे निश्चित तौर पर सत्ता पक्ष के विरुद्ध माना जा सकता था. राजनीतिक घोषणापत्र के साथ जो भी दल चुनावी मैदान में हैं, उन्हें महज वोट-कटवा कहकर नकारा नहीं जा सकता है. बहुकोणीय गोलबंदियों के चलते भी मतदान बढ़ा है. जाहिर है, बहुकोणीय मुकाबले जटिल होते हैं और इनका आकलन बेहद मुश्किल है.

इस चुनाव में केवल राष्ट्रीय मुद्दे प्रभावी नहीं रहेंगे, स्थानीय मुद्दों का भी असर दिखेगा. क्षेत्रीय दल भी सोलहवीं लोकसभा में अधिकतम सीटों के साथ उपस्थिति दर्ज कराना चाहते हैं, इसलिए हर स्तर पर ये दल भी मतदाता को लुभाकर ईवीएम का बटन दबाने को बाध्य कर रहे हैं. बहरहाल, इस चुनावी यज्ञ में जितनी ज्यादा आहुतियां पड़ेंगी, लोकतंत्र उतना ही पारदर्शी और मजबूत होगा.

प्रमोद भार्गव
लेखक


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