राष्ट्रीयता के कुछ धुंधले पहलू
एक विकृत राष्ट्रवादी दिमाग ही समस्या को अपराध समझ सकता है. कश्मीर में अगर पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगते हैं, तो यह अपराध नहीं, समस्या है.
राजकिशोर, लेखक |
यह समस्या गलत राजनीतिक समझ से पैदा हुई है. इसलिए निदान पुलिस या फौजी कार्रवाई में नहीं है. किसी राजनीतिक मामले को राजनीतिक स्तर पर ही सुलझाया जा सकता है. राजनीतिक प्रयास की अनुपस्थिति में पुलिस कार्रवाई समस्या को उग्रतर बना सकती है. कश्मीर में यही हुआ है. जब आप बहुत दिनों तक राजनीतिक समाधान की कोशिश नहीं करते, तो समस्या के आपराधिक आयाम खुलने लगते हैं.
श्रीलंका में शांति रक्षक सेना भेजने के बाद जब राजीव गांधी खुद श्रीलंका पहुंचे, तो वहां की तमिल आबादी का आक्रोश उनके सामने प्रगट हुआ. कोलंबो में एक सैनिक ने बंदूक के कुंदे से उन पर हमला किया. राजीव सतर्क थे, इसलिए बच गए. फिर भी उन्हें यह बोध नहीं हुआ कि श्रीलंका के गृहयुद्ध में किसी एक पक्ष के समर्थन में भारतीय सेना भेजना उचित नहीं था. बाद में इसी कारण उन पर जानलेवा हमला भी हुआ.
यह श्रीलंका के सिंहली कुतर्की का समर्थन करने का दंड था, जिसका किसी भी तरह समर्थन नहीं किया जा सकता, पर जिसे समझने की कोशिश जरूर की जा सकती है; क्योंकि श्रीलंका में जो तमिल समस्या थी, वैसी ही कश्मीर समस्या भारत में थी. फर्क यह है कि तमिल युद्ध कर रहे थे और भारत में कश्मीरियों की संख्या इतनी नहीं है कि वे भारतीय राज्य से उस स्तर का युद्ध कर सकें.
लेकिन युद्ध सिर्फ बाहर नहीं होता, न ही हमेशा हथियारों से लड़ा जाता है. इसकी शुरु आत मन से होती है और जो मन में है वह किसी न किसी रूप में प्रगट होकर ही रहता है. अलीगढ़ में यही हुआ जब कुछ कश्मीरी छात्रों ने पाकिस्तानी क्रिकेट टीम के जीतने पर ‘पाकिस्तान जिंदाबाद’ के नारे लगाए. हमें समझना चाहिए था कि यह पाकिस्तान के प्रति प्रेम से ज्यादा भारत पर गुस्से का इजहार था.
असंतुष्ट कश्मीरी मुसलमान ‘आजाद’ कश्मीर चाहते हैं न कि पाकिस्तान में विलय. पाकिस्तान की हकीकत वे भी जानते हैं, पर जब क्रिकेट के मैच में भारत की टीम जीत जाती है तब उन्हें खुशी नहीं होती और पाकिस्तान जीत जाता है तब उन्हें बहुत सुरूर होता है. यह एक बालकोचित मानसिकता है, पर घृणा में कुछ ऐसी शक्ति है कि वह हमारी वयस्कता को सोख लेती है और हमें लघुमानव बना देती है.
भारत में राष्ट्रीय भावना का विकास उस दौर में हो रहा था जब यूरोप में राष्ट्रीयता एक समस्या के रूप में उभर रही थी. प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के प्रच्छन्न लक्ष्य जो भी हों, लेकिन सारा घात-प्रतिघात और आक्रमण-प्रत्याक्रमण राष्ट्रीयता के कुतकरे के नाम पर हुआ था. एशिया में जापान भी इसी लहर पर सवार था. उन्हीं दिनों रवींद्रनाथ टैगोर ने राष्ट्रीयता या राष्ट्रवाद पर जोरदार हमला करते हुए एक छोटी-सी किताब लिखी थी जिसे आज भी चाव से पढ़ा जाता है.
निसंदेह किसी भी तर्क को कुतर्क में बदला जा सकता है और कुछ हलकों में यही हुआ है. रवींद्रनाथ वास्तव में राष्ट्रीयता के विरोधी नहीं थे, राष्ट्रीयता के कुतकरे से जो स्थितियां पैदा होती हैं या पैदा हो सकती हैं, उनका वे विरोध जरूर करते थे. आखिरकार हिटलरशाही को रूसी जनता और सेना के राष्ट्रप्रेम ने ही रोका था.
मुसलमान तो भारत में अल्पसंख्यक हैं, पर दलितों, आदिवासियों, पिछड़ों और स्त्रियों की कुल संख्या तो भारी बहुमत में है. इनके मामलों में हमारी राष्ट्रीय भावना क्यों शोषणकारी बनी हुई है? इसके पीछे भी राष्ट्रीयता के कुतर्क ही हैं. चूंकि ये सदियों से दबे रहे हैं, इसलिए नए भारत में भी उन्हें समानता का हक नहीं मिले, यही समाज के एक हिस्से को स्वाभाविक जान पड़ता है. राष्ट्रीयता सिर्फ कर्तव्य नहीं है, राष्ट्र से प्रेम भी है और राष्ट्र से मतलब सिर्फ
यहां की जमीन, नदियां, पहाड़ और वनस्पति नहीं है, यहां के लोग हैं, जिनसे अनुराग के बिना न तो राष्ट्र की उन्नति हो सकती है, न राष्ट्रीयता की भावना में सार आ सकता है. आदिवासियों के जीवन और उनके संसाधनों के साथ स्वतंत्र भारत ने जो सलूक किया है, उसके पीछे यही भावना है कि राष्ट्र पर उनका कोई हक नहीं है. आदिवासियों को असंस्कृत माना जाता है, पर हमने क्या खुद को उनसे ज्यादा असंस्कृत नहीं साबित किया है?
ऐसा माना जाता है कि भूमंडलीकरण से राष्ट्रीयता के विकृत रूप कमजोर होंगे और हम एक विश्व संस्कृति की ओर बढ़ सकेंगे. इससे बड़ा भ्रम और क्या हो सकता है? वास्तव में भूमंडलीकरण का चुनाव उन्होंने ही किया है जिनकी नजर में बहुसंख्य भारतीय भारत के नागरिक नहीं हैं और उनके हितों की कुरबानी देकर एक सशक्त और संपन्न भारत का विकास किया जा सकता है. राष्ट्र खत्म नहीं हुए हैं, उनके अमीरों के बीच की दीवारों को तोड़ा जा रहा है. पूंजीवाद के लिए इससे ज्यादा खुशी की बात और क्या हो सकती है?
भूमंडलीकरण वास्तव में पूंजीवाद की विश्व एकता का अब तक का सबसे बड़ा अभियान है. उसके पास गरीबों के लिए कोई अजेंडा नहीं है, उसके मानचित्र पर इनका कोई अस्तित्व नहीं है. सच तो यह है कि इन्हें एक समस्या के रूप में देखा जाता है, वैसे ही जैसे दलितों, मुसलमानों और आदिवासियों को समस्या के रूप में देखा जाता है. यह अकारण नहीं है कि इस आम चुनाव में भूमंडलीकरण और सामाजिक संकीर्णता की ताकतें बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले रही हैं. अब इन सवालों को फिर से उठाने का समय है कि राष्ट्र किसे कहते हैं, राष्ट्रीयता के तकाजे क्या हैं और बीमार राष्ट्रीयता को स्वस्थ राष्ट्रीयता से कैसे दूर रखा जाए.
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