दिल्ली का घुट रहा दम, वजह जुड़ी है कृषि के गहरे संकट से

Last Updated 23 Oct 2016 10:30:32 AM IST

सर्दियां शुरू होने के साथ ही उत्तर भारत को अकसर हर साल भारी परेशानी उठानी पड़ती है क्योंकि 20 करोड़ से ज्यादा निवासियों वाले इस क्षेत्र की हवा जहरीली हो जाती है.


घुट रहा दम, वजह जुड़ी है कृषि के गहरे संकट से

हवा में घुले इस जहर की वजहों की बात आती है तो अक्सर उंगलियां उन हाथों की ओर उठती हैं, जो देशभर के लोगों का पेट भरते हैं.

देश का अन्न भंडार कहलाने वाले क्षेत्र के किसानों को कृर्षि अपशिष्ट खेतों में न जलाने के लिए कहा जाता है क्योंकि इससे नयी दिल्ली, लखनऊ और इलाहाबाद जैसे बड़े शहरों की हवा दूषित हो जाती है.

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि मानसून खत्म होने के बाद देश के अन्न के कटोरे के रूप में मशहूर हरियाणा और पंजाब के खेतों में बड़ी मात्रा में शेष बची पराली जलाई जाती है. 

इनमें लगाई जाने वाली आग इतनी व्यापक होती है कि धरती से कुछ सौ किलोमीटर ऊपर मौजूद उपग्रहों तक भी इनकी जानकारी पहुंच जाती है.

इस दौरान पश्चिमी हवाएं भी चलती हैं और उत्तर भारत पर धुंए का एक बड़ा गुबार सा छा जाता है. उपग्रह से ली गई तस्वीरों में यह गुबार साफ दिखाई देता है और भारत की राजधानी में सत्ता के के गलियारों में खतरे की घंटी बज जाती है.

पिछली सर्दियों में भारत के प्रधान न्यायाधीश ने सख्त आदेश जारी किए थे और कार-पूलिंग करके अपने हिस्से का योगदान भी दिया था. फिर भी हवा दूषित ही रही.

दिल्ली की हवा को दूषित करने में वाहनों, उद्योगों, ऊष्मीय ऊर्जा संयंत्रों और खेतों में लगाई जाने वाली आग का हाथ है. कोई नहीं जानता है कि बड़ा दोषी कौन है?

किसानों की ओर उंगली उठाना आसान है लेकिन इस बात का अहसास बहुत कम है कि किसानों द्वारा कृषि अपशिष्ट जलाए जाने के पीछे कृषि का एक गहरा संकट है और यह एक स्वस्थ जीवन, हवा, पानी और जमीन के लिए जरूरी तत्वों के साथ जुड़ा हुआ है.

आज हरियाणा और पंजाब के खेतों पर बोझ इतना ज्यादा है कि वे अपनी उत्पादकता खोने लगे हैं. हरित क्रांति ने उन्हें रिणग्रस्त बंजर जमीनों के रूप में बदल दिया है.

कई साल पहले तक क्षेत्र में साल में एक या दो फसलें उगाई जाती थीं और इसके बीच की अवधि में खेतों को खाली छोड़ दिया जाता था.

खेतों को खाली छोड़े जाने की यह अवधि बेहद महत्वपूर्ण होती थी क्योंकि यह कृषि अपशिष्ट के कार्बनिक पदार्थ को खत्म होने का और ऊपरी मिट्टी से मिल जाने का मौका देती थी.

आज अधिकतर स्थानों पर चार नहीं तो कम से कम तीन फसलें तो उगाई जा ही रही हैं. एक फसल की कटाई के साथ ही किसान दूसरी फसल बोने की जल्दी होने लगती है.

ऐसे में पराली के सही इस्तेमाल का समय ही नहीं मिलता और दूसरी फसल बोने की जल्दी में किसानों के सामने इस पराली से छुटकारा पाने का एकमात्र उपाय उसे जला देना ही होता है, जिससे पैदा होने वाली राख जाकर मिट्टी में मिल जाती है.

यह एक दुष्चक्र है और कई दशकों से चली आ रही गड़बड़ कृषि नीतियों की वजह से किसान अपने खेतों में ज्यादा से ज्यादा फसले उगाने के लालच में फंसा हुआ है.

भारतीय कृषि अनुसंधानकर्ता देश को कम से कम अवधि में उग सकने वाली किस्में विकसित करके देते हैं और किसान बिना किसी इनकार के उसे अपनाते जाते हैं. कोई भी व्यक्ति यह नहीं सोचता कि इससे मिट्टी की सेहत पर क्या असर पड़ रहा है? अब तो इससे हवा भी दूषित होती जा रही है.

आप मई या जून में यदि पंजाब और हरियाणा से होकर गुजरें तो भरी गर्मी में आपको खेतों में पानी भरा हुआ दिखेगा। धरती की गहराई से निकाले गए इतने अधिक पानी में वहां धान बोया जा रहा होता है.

मानसून से कम से कम छह-आठ हफ्ते पहले किसान सहारा रेगिस्तान जैसे मौसम में धान की खेती शुरू करते हैं. धान के लिए पानी बहुत ज्यादा चाहिए, इसलिए खेतों को कृत्रिम तौर पर पानी उपलब्ध कराया जाता है.

समय से पूर्व धान बोए जाने से दो गड़बड़ियां होती हैं. एक तो पानी निकालने के लिए भारी मात्रा में ऊर्जा का इस्तेमाल किया जाता है. इसके कारण भूजल का स्तर गिरता जाता है.

अमेरिका में नासा के गोड्डार्ड स्पेस फ्लाइट सेंटर के मैट रोडेल ने कहा, ‘यदि भूजल के टिकाऊ इस्तेमाल के लिए उपाय सुनिश्चित नहीं किए गए तो 11.4 करोड़ की आबादी वाले इस क्षेत्र में कृषि उत्पादन के खत्म हो जाने और पेयजल की भारी कमी जैसे नतीजे भी सामने आ सकते हैं’.

दूसरी बड़ी समस्या तब होती है जब मानसून के बाद फसल काटी जाती है. तब सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम समर्थन मूल्य पर चावल बेचे जाते हैं और पीछे किसान के पास बड़ी मात्रा में पुआल बच जाता है.

दुर्भाग्यवश धान के पुआल में बड़ी मात्रा में सिलिका होता है. यह बेहद कड़ा होता है जिसके कारण पशुओं को इसे खाने में भारी दिक्कत होती है. अब किसानों को अगली फसल बोने की जल्दी होती है इसलिए उनके पास कृषि अपशिष्ट को जलाने के अलावा कोई विकल्प बचता ही नहीं.

पुआल से कार्बनिक कंपोस्ट बनाने का इंतजार करना या इसे एकत्र करके कृषि अपशिष्ट से उपयोगी चीजें बनाने वाले स्थानों पर भेजने में लगने वाला समय और धन दोनों ही ज्यादा हैं. ऐसे में किसानों को अपशिष्टों को जला देना ही एकमात्र उपाय दिखाई पड़ता हैं.

मिट्टी की ऊपरी सतह के लिए कार्बनिक पदार्थ बेहद महत्वपूर्ण हैं लेकिन उत्तर पश्चिम भारत में यह मात्रा तेजी से कम हो रही है. ऐसे में विशेषज्ञों का कहना है कि यह मिट्टी जल्दी ही बंजर हो सकती है.

पंजाब के पर्यावरण की मौजूदा स्थिति के बारे में स्थानीय सरकार द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट में कहा गया, ‘राज्य में पैदा होने वाले 80 फीसदी पुआल (1.84 करोड़ टन) और लगभग 50 फीसदी पराली (85 लाख टन) हर साल खेतों में जला दी जाती है.

इससे जमीन की उर्वरता पर तो असर पड़ता ही है, साथ ही इससे निकलने वाली मीथेन, कार्बन डाइ ऑक्साइड, नाइट्रोजन के ऑक्साइडों और सल्फर डाइ ऑक्साइड गैसों और कणों के कारण वायु प्रदूषण भी होता है. इनके कारण सांस, त्वचा और आंखों से जुड़ी बीमारियां हो सकती हैं’.

रिपोर्ट के अनुसार, ‘जरूरत से ज्यादा खेती भी जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार कार्बन डाइ ऑक्साइड, मेथेन और नाइट्रस ऑक्साइड जैसी ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार है’.

जब किसानों के पास व्यापक स्वदेशी जानकारी है तो फिर वे ऐसे नुकसानदायक काम क्यों कर रहे हैं? दुर्भाग्यवश इनका दोष सरकार की कृषि-आर्थिकी की नीतियों पर जाता है.

वायु प्रदूषण की पूरी समस्या को जड़ से खत्म करने के लिए दिल्ली के मुख्यमंत्री की फौरी तौर पर लाई गई ‘सम-विषम योजना’ या किसानों को कृषि अपशिष्ट न जलाने का आदेश सुनाया जाना और दंडित करने का प्रावधान काम नहीं करने वाला.

दिल्ली और उत्तर भारत के लोगों का दम घुटने से बचाने के लिए कृषि अर्थव्यवस्था की संरचना को एक नए समग्र ढंग से निर्धारित करना होगा.

पल्लव बाग्ला


Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment