नया प्रोटीन फिर से तैयार कर सकता है हृदय की मांसपेशियां

Last Updated 20 Sep 2015 04:06:08 PM IST

वैज्ञानिकों ने ऐसे प्रोटीन की पहचान की है जो दिल का दौरा पड़ने के बाद उसकी मांसपेशी की कोशिकाओं को फिर से बनाने में मदद करता है.


हृदय की मांसपेशियां तैयार कर सकता है प्रोटीन (फाइल फोटो)

प्रोटीन हृदयघात के बाद सुधारता है :अनुसंधाकर्ताओं ने यह भी बताया है कि हृदय के अंदर थोड़ी अधिक मात्रा में यह प्रोटीन रखा जाए तो चूहों और सुअरों में इससे न केवल हृदयघात के बाद दिल के कामकाज में सुधार होता है बल्कि उनके बचने की संभावना भी बढ़ जाती है

चार से आठ सप्ताह में सामान्य कामकाज :पशुओं का अगर इस प्रोटीन के पैच के साथ इलाज किया जाए तो चार से आठ सप्ताह के अंदर उनका हृदय सामान्य कामकाज करने की स्थिति के करीब पहुंच जाता है.

2017 तक संभव होगा परीक्षण :अनुसंधानकर्ताओं का कहना है कि शायद वर्ष 2017 तक इस तरह का परीक्षण मनुष्य में करना संभव हो पाएगा. इस प्रोटीन की पहचान फोलिस्टैटिन-लाइक 1 (एफएसटीएल 1) के तौर पर की गई है जो हृदय की मांसपेशी कोशिकाओं के विभाजन की दर को उद्वीप्त कर देता है.

प्रोटीन कोशिकाओं की दर तेज करती है : अनुसंधानकर्ताओं ने प्रोटीन का एक पैच तैयार कर उसे, प्रायोगिक तौर पर हृदयघात से गुजरे चूहों और सुअरों के हृदयों की सतह पर रखा. ‘एफएसटीएल-1’ प्रोटीन हृदय के अंदर पहले से ही मौजूद मांसपेशी कोशिकाओं की विभाजन दर को तेज कर, क्षतिग्रस्त हृदय की मरम्मत के लिए प्रेरित करता है.

हृदयाघात से गुजर चुके चूहों और सुअरों पर प्रोटीन का प्रयोग सफल रहा : ‘स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी’ के प्रोफेसर पिलर रूइज लोजानो ने कहा कि हृदय की मांसपेशियों का पुनरूत्पादन और उनका जख्मी होना ये वह दो मुद्दे हैं जिनका हृदयाघात के वर्तमान इलाज में समाधान नहीं है. ‘इसी के फलस्वरूप कई मरीजों का हृदय सही तरीके से काम नहीं करता और वे दीर्घकालिक विकृति के शिकार हो जाते हैं. इसकी परिणति मौत के रूप में होती है.’

कई मरीज हृदयाघात के बाद बच जाते हैं. लेकिन क्षतिग्रस्त अंग और जख्म की वजह से रक्त को पंप करने में दिक्कत होती है. लगातार दबाव की वजह से जख्म बढ़ता जाता है और फिर हृदय काम करना ही बंद कर देता है. इन तयों को देखते हुए अनुसंधानकर्ताओं ने हृदयाघात से गुजर चुके चूहों और सुअरों पर ‘एफएसटीएल-1’ प्रोटीन के पैच के साथ प्रयोग किया और सफल रहे. अध्ययन के नतीजे ‘नेचर’ जर्नल में प्रकाशित हुए हैं.



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