ग्वालदम में मिट गई दिलों की दूरियां
सदियों पहले कत्यूरी राजाओं व पंवार वंश के राजाओं के बीच हुई लड़ाइयों के बाद दिलों में खिंची दीवार एक छोटे से कस्बे ग्वालदम में ढह गई.
Nanda Rajjat |
14 साल बाद नंदा राजजात के बहाने उत्तराखंड के दिलों में उमड़-घुमड़ कर आने वाला गढ़वाल और कुमाऊं का सवाल भी इस राजजात ने हाशिये पर डाल दिया.
कुमाऊं मंडल से राजजात में सम्मिलित होने के लिए कोटभ्रामरी की कटार, नंदा सुनंदा की छंतोलियां और अन्य छंतोलियों के स्वागत के लिए गढ़वाल के लोगों ने पलक-पांवड़े बिछा दिये तो कुमाऊं ने भी पहाड़ के इस महाकुंभ में शामिल होने के लिए जबरदस्त उत्साह दिखाया.
ग्वालदम मंगलवार को समूचे उत्तराखंड के मिलन का केंद्र बना। सुबह से ही कुमाऊं मंडल से राजजात में आने वाली देव छंतोलियों के लिए गढ़वाल और कुमाऊं को जोड़ने वाले इस छोटे से कस्बे में जिस तरह का उत्साह दिखा उससे गढ़वाल और कुमाऊं की जो दूरियां थीं वह खत्म हो गयीं. गढ़वाल क्षेत्र के लोगों को कुमाऊं को सिर आंखों पर बिठाने के लिए शायद इससे अच्छा अवसर मिलता भी नहीं. महज डेढ़ से दो सौ लोगों की दिनर्चया का केंद्र रहने वाले ग्वालदम में मंगलवार को तिल रखने की जगह भी नहीं थी. सुबह से ही लोगों को बस एक ही बात का इंतजार था, छंतोलियां लेकर लोग उनके कस्बे में आयें.
उत्साह का आलम यह रहा कि ग्वालदम के व्यापारियों ने अपने व्यापारिक केंद्रों को सुबह 10 बजे से ही बंद कर दिया था और सभी मिलकर स्वागत में जुट गये थे.
महिलाओं ने पारम्परिक कुमाऊंनी पिछोड़े पहनकर यात्रा का स्वागत किया. ग्वालदम मुख्य बाजार से करीब एक किलोमीटर पहले ही स्वागत द्वारा को पय्यां से सजाया गया था. 11 बजे के करीब ही स्कूली बच्चों के साथ ग्वालदम की महिलाएं कलश लेकर स्वागत द्वार के पास पहुंच गये थे.
शाम साढ़े तीन बजे जब तक कोटभ्रामरी की कटार व मतरेल, अल्मोड़ा, नैनीताल, रानीखेत व बागेश्वर से आने वाली देव छंतोलियां नहीं पहुंच गयीं लोग स्वागत के लिए द्वार के समीप ही डटे रहे. कोटभ्रामरी से चलकर नंदकेसरी में राजजात में सम्मिलित होने निकली देवी की कटार व छंतोलियां मंगलवार को कोटभ्रामरी (डंगोली) से रवाना हुई.
14 साल पहले भी इसी राजजात में जब कुमाऊं की देव छंतोलियां नंदकेसरी में कुरुड़ व नौटी की नंदा से मिली थी तो वह दिन इस राज्य के लिए ऐतिहासिक था. उसी 30 अगस्त को संसद में उत्तराखंड राज्य का प्रस्ताव पारित हुआ था और अब एक बार फिर से इस मिलन से उत्तराखंड राज्य को एकसूत्र में पिरोने का संदेश लोगों ने दिया है.
राजे-रजवाड़ों के अहम के चलते खिंची वह सीमा रेखा पूरी तरह इस अद्भुत सांस्कतिक व पारंपरिक देव मिलन में धुल गयी है. गढ़वाल की ओर से यात्रा का स्वागत करने पहुंचे प्रख्यात पर्यावरणविद् व गांधी शांति पुरस्कार विजेता चंडी प्रसाद भट्ट भी इस उत्साह को देखकर गद्गद दिखे तो प्रख्यात सामाजिक चिंतक प्रोफेसर शेखर पाठक भी समूचे उत्तराखंड के मिलन के इस ऐतिहासिक अवसर के गवाह बनने से नहीं चूके.
ग्वालदम से ही मैती आंदोलन की प्रेरणा देने वाले कल्याण सिंह रावत भी इस मौके को राज्य के आपसी सौहार्द के लिए महत्वपूर्ण मानते हैं.
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