उत्तर प्रदेश में बीजेपी एक वैचारिक तौर पर शून्य पार्टी है जिसके पास न तो कोई चुनावी मुद्दे हैं और ना ही ऐसे नेता जो अपने दम पर चुनाव जितवा सकें.
|
इस बार के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में जहॉं मुस्लिम आरक्षण, किसान, भूमि अधिग्रहण को लेकर दूसरे दल अपनी जड़ें मजबूत कर रहे हैं. वहीं बीजेपी ने इन सभी मामले पर अपनी चुप्पी लगाए बैठी है. साथ ही मौजूदा दौर में प्रचलित यूथ फैक्टर को भी बीजेपी न भुनाकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार रही है.
बीजेपी के साथ कई मुश्किलें हैं एक तो इसके अधिकतर नेता 80-90 वाले दशक के है जिनका राजनीतिक जीवन अब समाप्त हो चुका है और कई नेता ऐसे हैं
जिन्हें लखनऊ से बाहर कोई नही जानता और जिनको लोग जानते हैं तो उनके लिए पार्टी की जीत से महत्वपूर्ण अपनी महत्वाकांक्षाए हैं.पार्टी में हर कोई नतीजो से पहले मुख्यमंत्री बनना चाहता है.
दूसरी मुश्किल यह कि यहॉ दूसरे दलों से आए नेताओ को टिकट देने के लिए निश्चत कोटा सिस्टम है. यह भी अपने आप में एक रिकार्ड रहा है कि समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी से बाहर किए गए नेता को बीजेपी ने अपने यहॉं पनाह तो दी लेकिन उन्हें कभी सफलता नही मिली.
एक समय था कि मंदिर आंदोलन ने बीजेपी को इतना अति उत्साहित कर दिया था बीजेपी का यही अति उत्साह हमेशा उसके डूबने की वजह बना. 1993 के विधानसभा चुनावों में कल्याण सिंह कहते फिरते थे कि 1991 की 221 सीटो से अगर हमें एक सीट भी कम मिलती है तो यह मंदिर आंदोलन की अस्वीकृति होगी.
लेकिन जब समाजवादी पार्टी- बहुजन समाज पार्टी ने अपनी सरकार बनाई तो बीजेपी का अति उत्साह थोड़ा कम जरूर हुआ लेकिन खत्म नही हुआ. 1995 में बीजेपी को बहुजन समाज पार्टी के साथ सरकार बनाने का मौका तो मिला लेकिन बीजेपी ने फिर अपने अति उत्साह के कारण सरकार ही गिरा दी.
1997 से 2002 का पूरा समय मुख्यमंत्री की अदला-बदली में निकल गया. बीजेपी चाहती तो इस पूरे दशक का सद्पयोग कर सकती थी और अपने लिए प्रदेश में पुख्ता जमीन तैयार कर सकती थी. 90 के दशक की गलतियो का नतीजा बीजेपी को 2002 और 2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में क्रमश 88 और 51 सीटो के रुप मे मिला.
इस बार भी अपनी जीत के लेकर अति उत्साहित बीजेपी ने पहले ही साफ कर दिया है कि वह नतीजों के बाद किसी भी दल के साथ गठबधंन नही करेगी. हालात तो यहॉं तक बन गए है कि पार्टी की पुरानी सहयोगी जेडीयू ने भी उत्तर प्रदेश में अपनी राहें जुदा कर ली.
जहां एक तरफ समाजवादी पार्टी और कांग्रेस अल्पसंख्यक आरक्षण के जरिये अपने लिए जगह तलाश रहे हैं इसके उलट बीजेपी को लगने लगा है कि बिना किसी मुद्दे के सवर्ण उसके पास फिर से लौट आएंगे और पिछड़ो के साथ कैसे भी अपनी जुगत बैठा कर वह अपनी सरकार बना लेगी लेकिन बीजेपी के लिए अब पिछडों और सवर्णो को अपने साथ लाना दूर की कौड़ी साबित होगा.
बीजेपी के लिए अब सूबे में पानी बहुत बह चुका है. पिछले बीते सालों में बीजेपी का पुराना वोट बैंक सवर्ण जातियॉं यादव और ठाकुर माफियाओ से बचने के लिए बहुजन समाज पार्टी से जुड़ने लगी है. गैर यादव पिछड़े भी बहुजन फैक्टर के कारण बहुजन समाजवादी पार्टी का साथ देने में अपना फायदा नजर आ रहा है.
यही कारण है कि बहुजन समाज पार्टी का 1996 में 13 फीसदी गैर यादव पिछड़ो का समर्थन 2007 में बढकर 27 फीसदी हो गया. तो यादवों के लिए मुलायम सिंह यादव ही उनके सबसे लोकप्रिय नेता हैं. बीजेपी को उमा भारती के जरिए प्रदेश की करीब 45 लोध बहुल सीटो से बहुत उम्मीदे है. लेकिन बीजेपी के पुराने सहयोगी और राष्टीय क्रांति पार्टी के कल्याण सिंह भी लोध जाति से आते हैं जो बीजेपी के मंसूबो पर पानी फेर सकते हैं.
2002 और 2007 के चुनावो में कल्याण सिंह की राष्टीय क्रांति पार्टी ने बीजेपी को सीधे करीब तीन दर्जन सीटो पर नुकसान पहुंचाया था. बीजेपी के लिए इस बार एक मौका तो है जो खुद बीजेपी के हित में काम कर रहा है. जब मुलायम सिंह यादव के जंगल राज के बाद 2007 में मुसलमानो ने बहुजन समाजवादी पार्टी में जाने में अपनी भलाई समझी लेकिन मायाराज में भी मुसलमानो को ठगा सा महसूस हुआ तो जाहिर है कि इस बार वे एक अच्छे विकल्प की तलाश में है.
यही कारण है कि उत्तर प्रदेश के इस चुनावी महाकुम्भ में सभी दलों की निगाहें सिर्फ मुस्लिम वोटो पर है. बीजेपी के लिए एक अच्छी खबर हो सकती है कि अगर पीस पार्टी का प्रदर्शन ठीक रहता है और समाजवादी पार्टी और कॉंग्रेस की आपसी खीचतान मुसलमानों को लेकर ऐसे ही जारी रही तो मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण होना तय है. जिसका सीधा फायदा बीजेपी को मिलेगा.
मंदिर मस्जिद और मंडल विवाद के बाद सवर्ण जातियों का बीजेपी को समर्थन प्राप्त था. बीजेपी को उत्तर प्रदेश में एक के बाद एक कई सवर्णिम मौके मिले और बीजेपी ने भी मौके का फायदा उठाया और बहुजन समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर दलितों और ब्राहमणों का गठजोड़ कर प्रदेश में तीन बार सरकार बनाई.
एक समय था जब बीजेपी के लिए राम मंदिर ही सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा था जब प्रदेश में बीजेपी की पहली दफा सरकार बनी और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने तो वे सबसे पहले अयोध्या पूजा करने गए. लेकिन मौजूदा दौर में हालात ऐसे बन गए कि बीजेपी राम मंदिर को लेकर सावधानी बरतने में ही अपना भलाई समझ रही है.
हॉंलाकि बीजेपी को भी अब इस बात का आभास हो चुका है कि उत्तर प्रदेश में उसके लिए वोंट बैंक नाम का कोई चीज रही ही नहीं. हाल ही में जारी अपने घोषणा पत्र “हमारा सपनों का उत्तर प्रदेश- नया उत्तर प्रदेश, सर्वोत्तम उत्तर प्रदेश” से साफ जाहिर है कि बीजेपी के पास विकास की इधर-उधर घोषणाओं के अलावा और कोई मुद्दा है भी नहीं.
भारतीय जनता पार्टी देश के उन राजनीतिक दलों में से एक है जिन्हें “बेचारा” की संज्ञा दी सकती है. बीजेपी के साथ एक बड़ी बिडम्बना यह है कि वह कुछ भी करे तो हंगामा मच जाता है और न भी करे तो फिर भी हंगामा मचना तय है.
बाबू सिंह कुशवाहा को लेकर पार्टी ने पिछड़ों की कोयरी बिरादरी के करीब 9 फीसदी वोट झटकने का जो आत्मघाती कदम उठाया साफ है कि बाबू सिंह कुशवाहा को पार्टी में लाने का मकसद पिछडों को अपने साथ लामबंद करने का था.
लेकिन बीजेपी को समझना जरुरी है कि बाबू सिंह कुशवाहा का वजूद मायावती के साथ था. और साथ ही उमा भारती को बुंदेलखंड की चरखरी सीट से खड़ा कर जो प्रयोग किए उन पर बवाल तो खूब मचा अब फायदा कितना होगा यह तो उत्तर प्रदेश की जनता तय करेगी लेकिन इतना तो तय है बीजेपी के लिए उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव ही उसके 2014 के लोकसभा चुनावो का भविष्य तय करेंगे.
| | |
|