राजस्थान के भारतीय लोककला मंडल ने विश्व में बनायी पहचान

Last Updated 03 Oct 2012 01:17:50 PM IST

उदयपुर में स्थित ‘भारतीय लोककला मंडल’ देश-विदेश के अतिथियों को भारतीय लोककला से रूबरू करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है.


भारतीय लोककला मंडल ने विश्व में बनायी पहचान (फाइल फोटो)

उदयपुर 'झीलों की नगरी' से जाना जाता है.  लोककला के आकषर्ण के कारण उदयपुर पहुंचने वाले दस में से आठ पर्यटक इस गैलरी को देखने के लिए अवश्य आते हैं.

राजस्थान और सम्पूर्ण देश की लोक कलाओं के संग्रह के रूप में ‘भारतीय लोककला मंडल’ को लोककला की ‘दर्शन दीर्घा’ कहा जाये तो गलत नहीं होगा.

अधिकारिक सूत्रों का कहना है कि ‘भारतीय लोककला मंडल’ ने अलग-अलग कक्षों में लोक संस्कृति के प्रतिमानों को जिस तरह दर्शाया है, वह देखते ही बनता है. लोक संस्कृति की खोज कर उनके नमूने यहां प्रदर्शित किये गये हैं.

लोक कला मंडल संग्रहालय से जुड़े सूत्रों के अनुसार संग्रहालय में मोलेला के टेराकोटा की अम्बा माता, चामुण्डा, धर्मराज और रतना रेबारी की कलात्मक मूर्तियां दर्शनीय हैं. दीवारों पर पेराकोटा से बनी लोक जीवन और पार्वती की झांकी देखते ही बनती हैं.

नाट्य कला हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग रही है और यहां तुर्रा कलंगी, रामलीला, रासलीला, गवरी, भवाई नृत्य की प्रस्तुतियों की छवि देखकर पर्यटक स्वयं लोककला से साक्षात्कार करता नजर आता है.

‘भारतीय लोककला मंडल’ में गवरी नृत्य नाटिका, जनजातियों के मॉडल, विभिन्न राज्यों में जनजातियों में प्रचलित मुखौटे, लोक देवी-देवता, मेंहदी के माण्डने, जमीन पर बनाये जाने वाले भूमि अलंकरण, दीवारों पर उकेरी जाने वाली सांझी और विभिन्न अवसरों पर बनाये जाने वाले थापे, जनजाति नृत्य भीलों का गेर और राजस्थानी नृत्य घूमर, गीदड नृत्य, नाथ सम्प्रदाय का अग्नि नृत्य के बारे में विस्तार से जानकारी दी गई है.

संग्रहालय के वाद्य यंत्रों में सारंगी, रूबाब, कामायचा बाजोड़ और घूम-घूमकर कराये जाने वाले देवदर्शन का माध्यम देवी देवताओं के कलात्मक चितण्र युक्त कावड़ विभिन्न राज्यों की जनजातियों मे पाये जाने वाले आभूषण, मोर चोपड़ा, बाजोड़, तेजाजी के जीवन पर आधारित चित्रावली, पथवारी का मॉडल समेत अन्य लोक कलाओं का अनूठा संग्रह है.

इसके अलावा पारम्परिक धागा कठपुतलियों के प्रदर्शन में सांप-सपेरा, बहुरुपिया, पट्टेबाज, तलवारों की लड़ाई, गेंदवाली, घोड़ा-घुड़सवार, कच्छी घोड़ी, ऊंट, बंजारा-बंजारी, तबला-सारंगी नर्तकी, रामायण, मुगल दरबार और संगठित रूप से बाल नाट्य प्रस्तुतियां पर्यटकों की पहली पंसद होती है.

सूत्रों का कहना है कि आपके पास समय है और आप स्वयं कठपुतली बनाना सीखना चाहते हैं, तो प्रशिक्षित कारीगर आपको कठपुतली बनाना भी सिखाएंगे.

गौरतलब है कि विख्यात लोक कलाविद पद्मश्री स्व. देवीलाल सामर ने वर्ष 1952 में भारतीय लोक कला मंडल की स्थापना की थी. उन्होंने बताया कि लोक कला को संग्रहालय में प्रदर्शित किया गया है.

संस्था के लोक कलाकार देश विदेश में अपनी कला का लोहा मनवा चुके हैं. मंडल को देश-विदेश स्तर के अनेक सम्मान भी मिल चुके हैं.



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