सुनीता पाटिल जो पूरे सम्मान के साथ कफन दफन का इंतजाम करती हैं

Last Updated 21 Jul 2015 12:41:50 PM IST

अंतिम सफर में बेसहारा रह जाने वाले ऐसे बदनसीबों के लिए किसी फरिश्ते से कम नहीं है सुनीता पाटिल जो पूरे सम्मान के साथ कफन दफन का इंतजाम करती हैं.


फाईल फोटो

जिंदगी के अंतिम सफर पर जाने वाला हर इंसान इतना खुशनसीब नहीं होता कि उसे अपनों के चार कंधों का सहारा मिल सके और अंतिम सफर में भी बेसहारा रह जाने वाले ऐसे ही बदनसीबों के लिए किसी फरिश्ते से कम नहीं है सुनीता पाटिल जो पूरे सम्मान के साथ कफन दफन का इंतजाम करती हैं.
  
जिंदगी के 35 सालों में ही बड़े उतार चढ़ाव देख चुकी सुनीता पाटिल कहती हैं, ‘जिंदा लोग धोखा दे सकते हैं लेकिन मुर्दे कभी दगा नहीं करते... यही वजह है कि मैं मुर्दे से प्यार करती हूं और उनके अंतिम सफर को इज्जत बख्शने के लिए मुर्दे की सेवा करती हूं.’
   
सुनीता पिछले करीब एक दशक से अधिक समय से स्वैच्छिक रूप से मुर्दे के अंतिम संस्कार की जिम्मेदारी संभाल रही हैं और वे इसे अपना बेहद पाक फर्ज मानती हैं.
   
नासिक में पंचवटी के अमरधाम श्मशान घाट पर रोजाना औसतन पांच शव लाए जाते हैं और सुनीता मृतक के परिजन की मदद करने को तैयार रहती हैं.
   
सुनीता श्मशान घाट के समीप ही एक दुकान भी चलाती हैं जहां वह कुछ पर्चे बेचती हैं जिन पर अंतिम संस्कार के बारे में जानकारी लिखी होती है. वह मृतक के परिजन को ढांढ़स बंधाती हैं और इतना ही नहीं मुर्दे के चेहरे को साफ करने और उस पर तेल या घी और चंदन का लेप लगाने में भी वह उनकी मदद करती हैं.
   
सुनीता के पिता चिता के लिए लकड़ियां बेचने का काम करते हैं और उन्होंने उन्हीं से मुर्दे की सेवा करना सीखा है.
   
किसी भी आम इंसान को भले ही यह सब खौफनाक लगे लेकिन सुनीता ने अपने अनुभवों को साझा करते हुए बताया, ‘मेरे पिता चिता की लकड़ियां बेचने का काम करते थे और जब मैं दस साल की थी तभी से देखती आ रही हूं कि कैसे मुर्दे के परिजन अंतिम संस्कार करते हैं. मुझे पता नहीं कि कब मुर्दे से मुझे लगाव शुरू हो गया और शव को चिता पर लिटाकर मुखाग्नि दिए जाने से पहले की सभी रस्मों से मैं जुड़ती चली गयी.’

सुनीता ने बताया, ‘कई बार जब सड़ी गली हालत में किसी मुर्दे को लाया जाता है तो उसके परिजन रूमाल से अपनी नाक ढक लेते हैं लेकिन ये सब चीजें मुझे कभी अपना काम करने से नहीं रोक पायीं. जब वे मुझे पैसे देते हैं तो मैं बड़ी शालीनता से यह कहते हुए इंकार कर देती हूं कि इसे उन लोगों को दे दो जिन्हें इसकी ज्यादा जरूरत है.’
     
पांच भाइयों और पांच बहनों में सबसे छोटी सुनीता के दो बेटे हैं जो दुकान चलाने में उसकी मदद करते हैं.
   
इस निस्वार्थ सेवा के लिए सुनीता को बहुत से पुरस्कार भी मिल चुके हैं जिनमें महाराष्ट्र सरकार का हीरकानी पुरस्कार भी शामिल है.
   
अपनी दुकान में रखे स्मृति चिह्नों, पुरस्कारों और प्रशस्ति पत्रों की ओर इशारा करती हुई आठवीं कक्षा पास सुनीता कहती है, ‘ईमानदारी से कहूं तो मुझे पुरस्कारों की बजाय मुर्दे की सेवा करने में कहीं अधिक दिली सुकून मिलता है.’
    
यह पूछे जाने पर कि वह अब तक अंदाजन कितने मुर्दे की सेवा कर चुकी होंगी, सुनीता ने एक रजिस्टर देखकर बताया, ‘इस वर्ष एक जनवरी से यहां अब तक 871 मुर्दे लाए गए और मैंने उनमें से लगभग सभी की सेवा की, चाहे दिन हो या रात.’
   
इस सवाल पर कि उन्हें किस बात से सबसे अधिक पीड़ा या हताशा होती है, वह कहती है कि जोर-जोर रोते उन मां बाप को देखकर बहुत दुख होता है जिनके बच्चे दुनिया से चले जाते हैं.
   
वह कहती है, ‘जब जवान बच्चे आत्महत्या कर लेते हैं या किसी हादसे में मारे जाते हैं तब मेरे दर्द की इंतहा नहीं रहती और मैं टूट जाती हूं.’



Post You May Like..!!

Latest News

Entertainment