राजी नहीं हुए काजी तो करनी पड़ी दखलअंदाजी

Last Updated 17 Oct 2017 02:22:11 AM IST

17 साल से दाम्पत्य जीवन से दूर रह रहे जज दंपति के तलाक के लिए सुप्रीम कोर्ट को विशेषाधिकार का इस्तेमाल करना पड़ा.


सुप्रीम कोर्ट

मियां-बीवी प. बंगाल में जिला जज के रूप में कार्यरत हैं. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद जब महिला जज अदालत में हाजिर नहीं हुई तो उसके पति की याचिका को स्वीकार करके तलाक की डिक्री जारी कर दी गई.

जस्टिस शरद अरविंद बोबडे और एल नागेर राव की बेंच ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत प्रदत्त विशेषाधिकार का इस्तेमाल करते हुए पश्चिम बंगाल में जिला जज के रूप में कार्यरत सुखेंदु दास और उसकी पत्नी रीता मुखर्जी को तलाक प्रदान कर दिया. जजों की आपसी कड़वाहट को दूर करने के लिए सुप्रीम कोर्ट दोनों के बीच समझौते का प्रयास कर चुका था. दोनों से सुप्रीम कोर्ट के मध्यस्थता केंद्र में आने का अनुरोध किया गया था ताकि मिल-बैठकर समाधान निकल सके. लेकिन श्रीमती मुखर्जी ने सुप्रीम कोर्ट का रुख नहीं किया. अंत में सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा कि 17 साल से अलग-अलग रहे दंपति के बीच साथ रहने की गुंजाइश नहीं है. लिहाजा तलाक ही एकमात्र विकल्प है.

दास और मुखर्जी का विवाह 1992 में हुआ था. विशेष विवाह अधिनियम के तहत दोनों ने शादी रचाई थी. शादी के एक साल बाद ही दंपति को एक पुत्री की प्राप्ति हुई. जज दास ने 2005 में जिला अदालत में दायर तलाक की याचिका में अपनी जज पत्नी पर आरोप लगाया कि उसके परिवार के प्रति उसका व्यवहार बहुत खराब है. उसके बीमार पिता के प्रति भी उसका बर्ताव ठीक नहीं है. बेटी की कस्टडी भी उसे नहीं दी गई है. जब वह खुद गंभीर रूप से बीमार हुआ तो पत्नी उसे एक बार देखने भी नहीं आई. जज ने यह भी कहा कि उसकी पत्नी उसके खिलाफ फौजदारी मुकदमा दर्ज करने की धमकी देती है.

ट्रायल कोर्ट में पत्नी ने सभी आरोपों को गलत बताया. लिखित जवाब दायर करने के बाद महिला जज ने अदालत की आगे की कार्यवाही में भाग नहीं लिया. उसने तलाक की याचिका खारिज करने का अदालत से अनुरोध किया. कलकत्ता सिटी सिविल कोर्ट के मुख्य जज ने अगस्त 2009 में तलाक की याचिका खारिज कर दी. पति ने तलाक के लिए कलकत्ता हाईकोर्ट का रुख किया लेकिन यहां भी महिला जज हाजिर नहीं हुई. इसके बाद मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. सुप्रीम कोर्ट ने ट्रायल कोर्ट के फैसले का हवाला देते हुए कहा कि विशेष विवाह अधिनियम, 1954 की धारा 27 के तहत क्रूरता साबित नहीं हुई है.

विवेक वार्ष्णेय
सहारा न्यूज ब्यूरो


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