कैदियों से भी गरिमा के साथ पेश आने की जरूरत है: न्यायालय

Last Updated 05 Feb 2016 10:17:37 PM IST

सुप्रीम कोर्ट ने देश की जेलों में बढ़ रही आबादी पर चिंता व्यक्त करते हुये कहा कि इस पर काबू पाने के लिये शीर्ष अदालत के तमाम निर्देशों के बावजूद जेलों में कैदियों की भीड़ हो गयी है.


सुप्रीम कोर्ट (फाइल फोटो)

शीर्ष अदालत ने यह भी कहा कि जेलों में कैदियों की स्थिति में कोई विशेष बदलाव नहीं आया है और समय के साथ इनमें बहुत अधिक भीड़ की समस्या बढ़ गयी है.
       
न्यायमूर्ति मदन बी लोकूर और न्यायमूर्ति आर के अग्रवाल की सामाजिक न्याय  पीठ ने कहा, \'\'यह स्पष्ट है कि विभिन्न याचिकाओं पर इस न्यायालय द्वारा दिये गये तमाम आदेशों के बावजूद जेलों में अन्य मसलों के अलावा कैदियों की भीड़ की समस्या जस की तस है\'\'

पीठ ने सवाल किया, \'\'क्या वास्तव में कुछ बदलाव हुआ है? राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो की वेबसाइट पर उपलब्ध 31 दिसंबर, 2014 की स्थिति के आंकड़ों के अनुसार जहां तक अत्यधिक भीड़ का सवाल है तो इसमें कोई बदलाव नहीं हुआ है और वास्तव में समय के साथ यह समस्या और बढ़ गयी है.\'\'

पीठ ने कहा कि कुल मिलाकर स्थिति यह है कि कैदी भी दूसरे मनुष्यों की तरह ही गरिमा से रहने के हकदार हैं.\'\' पीठ ने इस तथ्य का भी जिक्र किया कि सबसे अधिक भीड़ (331.7 फीसदी) दादरा और नागर हवेली की जेल में है जबकि छत्तीसगढ़ की जेलों में (258.9 फीसदी) और दिल्ली की जेलों में (221.6 फीसदी) कैदियों की भीड़ है.

न्यायालय ने बाल सुधार गृहों में किशोरों की स्थिति का संज्ञान लेते हुये महिला एवं बला विकास मंत्रालय को नोटिस जारी करने के साथ ही कैदियों की एक मैनुअल तैयार करने का भी निर्देश दिया.

पीठ ने कहा, \'\'जेल सुधारों का विषय लंबे समय से चर्चा में है और पिछले 35 सालों में शीर्ष अदालत ने समय समय पर फैसले भी सुनाये हैं. दुर्भाग्य से, संविधान के अनुच्छेद 21 में सभी व्यक्तियों के गरिमा के साथ जीवन गुजारने के प्रावधान के बावजूए ऐसा लगता है कि कैदियों की स्थिति में बहुत अधिक बदलाव नहीं हुआ है और हमें एक बार फिर जेलों और उनमें सुधार से जुड़े मुद्दों पर गौर करना होगा.\'\'


पूर्व प्रधान न्यायाधीश आर सी लाहोटी ने 13 जून, 2013 को प्रधान न्यायाधीश को देश की 1382 जेलों की अमानवीय स्थिति के बारे में पत्र लिखा था. इस पत्र को एक समाचार पत्र ने प्रकाशित किया था. इसके बाद इसे जनहित याचिका में तब्दील करके सरकारों को नोटिस जारी किये गये थे.

विचाराधीन कैदियों की स्थिति की समीक्षा की समिति के कामकाज के संदर्भ में शीर्ष अदालत ने प्रत्येक जिले की इस समिति से कहा कि वह हर तीसरे महीने बैठक करें. न्यायालय ने जिला विधिक सेवा समिति के सचिव को निर्देश दिया कि वह विचाराधीन कैदियों और अपनी सजा पूरी कर चुके कैदियों की रिहाई के लिये होने वाली बैठकों में शामिल हों.



पीठ ने कहा, \'\'विचाराधीन कैदियों की समीक्षा समिति को विशेष रूप से दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 436 और धारा 436-ए के प्रभावी तरीके से अमल के पहलुओं पर गौर करना चाहिए ताकि विचाराधीन कैदियों को यथाशीघ रिहा किया जा सके ओर ऐसे कैदी जो गरीबी की वजह से मुचलका नहीं दे सकते हैं उन्हें सिर्फ इसी वजह से जेल में नहीं रहना पड़े.\'\'

पीठ ने यह भी कहा कि इस समिति को विशेष रूप से पहली बार अपराध करने वालों के मामलों में, अपराधियों के परिवीक्षा कानून 1958 के अमल के मसले पर भी गौर करना चाहिए ताकि समाज में उनके पुनर्वास की उम्मीद बनी रहे.

न्यायालय ने प्रत्येक राज्य के विधिक सेवा प्राधिकरण के सचिव सदस्य को आदेश दिया कि वे जिला विधिक सेवा समिति के सचिव के साथ तालमेल करके यह सुनिश्चित करें कि विचाराधीन कैदियों और कानूनी सहायता वहन करने की स्थिति में नहीं होने वाले कैदियों की मदद के लिये पर्याप्त संख्या में सक्षम वकीलों की सूची तैयार की जाये.

पीठ ने गृह मंत्रालय को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया कि सभी केन्द्रीय और जिला जेलों में प्रबंधन सूचना प्रणाली यथाशीर्घ शुरू की जाये.

 

 



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