देश के अन्नदाता किसान की बदहाली बड़ी चुनौती
विकास के नाम पर उपजाऊ जमीन के अधिग्रहण और कर्ज के बोझ तले दबे किसानों की आत्महत्या भारत के कृषि क्षेत्र की बड़ी समस्या बनी हुई है.
देश के अन्नदाता किसान की बदहाली बड़ी चुनौती (फाइल फोटो) |
खाद्यान्न के मामले में देश का आत्मनिर्भर होना नीतिगत रूप से किसी भी सरकार के लिए संतोष की बात हो सकती है लेकिन 65 प्रतिशत से अधिक श्रमशक्ति के कृषि क्षेत्र पर आधारित होने, सिंचाई के साधनों का अभाव होने, किसानों को फसलों का उचित दाम नहीं मिलने से बड़ी समस्या बनी हुई है.
विदर्भ जनांदोलन समिति के संयोजकों में शामिल किशोर तिवारी ने कहा कि तीन दशक पहले तक पारंपरिक खेती होती थी और फसलों का बेहतर संतुलन रहता था. लेकिन फिर सरकार नकदी फसलों की नीति लेकर आई. किसानों को नकदी फसलों की ओर सरकार ने आगे बढ़ाया. लेकिन जब से नकदी फसलों पर सब्सिडी समाप्त हुई तबसे किसान पूरी तरह से बाजार की दया पर आ गया है.
उन्होंने कहा कि खेती के वास्ते लिये गए कर्ज को नहीं चुका पाने के कारण आत्महत्या करने को मजबूर होना पड़ रहा है. किसानों के लिए वर्तमान मुआवजा नीति एक छलावा है और इसके स्थान पर ऐसी नीति बनाई जाए जैसी विमान हादसों के शिकार लोगों के लिए है. इसी तर्ज पर किसानों के लिए बीमा नीति भी घोषित की जाए.
कृषि मंत्रालय एवं राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक, साल 2009 में 17,368, 2010 में 15,694, 2011 में 14,027 और 2013 में 11,772 किसानों के आत्महत्या की सूचना मिली. इनमें से कृषि वजहों से 2009 में 2,577, 2010 में 2,359, 2011 में 2,449 2012 में 1066, 2013 में 890 और 2014 में 1357 आत्महत्या के मामले शामिल हैं.
जाने माने चिंतक के एन गोविंदाचार्य ने कहा कि किसानों की दुर्दशा का मुख्य कारण वह नीतियां हैं जिनमें खेती को कभी मुख्यधारा एवं विकास के मानक के रूप में देखा ही नहीं गया.
गोविंदाचार्य ने कहा कि कृषि को कभी मुख्यधारा एवं विकास के मानक के रूप में देखा ही नहीं गया. उल्टे विकास के नाम पर उनकी खेती की जमीन औने पौने दामों पर अधिग्रहित करने का काम किया गया.
उन्होंने कहा कि बीज, खाद आदि के नाम पर छिटपुट सब्सिडी और कृषि रिण के अलावा किसानों के लिए कोई खास सुविधा नहीं है जिससे बाढ़, ओलावृष्टि एवं अन्य प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति में उनके नुकसान की भरपायी हो सके.
गोविंदाचार्य ने कहा कि संकर फसलों के नाम पर उनके समक्ष महंगे बीज का संकट उत्पन्न हो गया है.
बुंदेलखंड विकास समिति के संयोजक आशीष सागर ने कहा कि एक किलो गेहूं या धान तैयार करने में किसानों को 25 से 30 रूपये की लागत आती है, सरकार इसे 13 से 16 रूपये में खरीदती है और फसल बर्बाद होने पर उसे जो मुआवजा मिलता है, वह मुश्किल से 3.4 रूपया बैठता है. अगर फसल बीमा की बात करें तब यह मरीचिका जैसा है.
ऐसे में किसान आत्महत्या क्यों करता है, यह कोई अर्थशास्त्र का बड़ा विषय नहीं है. इसके बाद उसका परिवार दर दर ठोकर खाने को मजबूर होता है.
सागर ने दावा किया कि किसानों को अपने उत्पाद को औने पौने दामों पर बेचना पड़ता है. अगर उत्पादन अधिक हो जाए तो भी सरकार अपने हाथ पीछे खींच लेती है. भारत में करीब 60 प्रतिशत आबादी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कृषि से जुड़ी है लेकिन खेती और किसानी को प्रोत्साहित करने वाली नीतियों का सख्त अभाव है. किसानों की आय बढ़ाने की तमाम योजनाएं बेनतीजा रही है.
सागर ने कहा कि बुंदेलखंड एवं देश के अन्य क्षेत्रों में सिंचाई के साधानों का अभाव है लेकिन भूजल का जबर्दस्त दोहन जारी है. जब जमीन के अंदर पानी नहीं होगा और खराब मानसून के कारण बारिश कम होने से सिंचाई नहीं होगी तब फसलें बर्बाद होगी. इसका सीधा असर किसानों पर पड़ता है और उनके समक्ष कोई विकल्प नहीं बचता.
पिछले कुछ वर्षो में सरकार ने किसानों को रिण माफी समेत काफी बड़े पैकेज दिए लेकिन किसानों की आत्महत्या का सिलसिला नहीं रूक रहा है.
कृषि क्षेत्र के पुनरूद्धार और किसानों की हालत में सुधार के लिए केंद्र सरकार ने कई कदम उठाए हैं जिनमें ग्रामीण क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश बढ़ाना, अवसंरचना विकास, बाजार तक पहुंच बढ़ाना से लेकर विपणन आदि शामिल हैं.
कृषि मंत्रालय एक नयी फसल बीमा, सिंचाई योजना एवं हर खेत को पानी पहुंचाने के लिए सिंचाई योजना को आगे बढ़ा रहा है ताकि सूखे जैसी स्थिति में किसानों को सुरक्षा प्रदान की जा सके. कृषि मंत्रालय ने सोयल हेल्थ कार्ड योजना की पहल की है जिससे किसानों को उर्वरकों का सही चयन करने में मदद मिल सके.
विशेषज्ञों का कहना है कि किसानों के आत्महत्या करने के आंकड़े महज आंकड़े नहीं हैं बल्कि यह त्रासद समय से गुजर रहे किसानों की जिंदगी की भयावह तस्वीर है जो सूखे, बाढ़, ओलावृष्टि की मार एवं कर्ज के जाल में फंसे ‘देश के अन्नदाता’ की दयनीय स्थिति बयां करते हैं.
इस बीच, देश में दलहन और तिलहन की पैदावार कम होने को देखते हुए भी फसल बर्बाद होने की स्थिति में दलहन और तिलहन को राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना के दायरे में लाने की मांग उठ रही है.
Tweet |