मन की हार
मन में कोई भी धारणा रखकर किसी वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति के बारे में सोचोगे और तब काम करोगे, तो ज्ञान पूर्ण नहीं हो सकता.
धर्माचार्य श्री श्री रविशंकर |
ठीक ज्ञान नहीं होगा, सम्यक् ज्ञान नहीं होगा. जिनसे तुम परेशान हो, वे तुम्हारे ही ख्याल हैं.
जिनसे तुम परेशान हो, वे तुम्हारे ही विचार हैं, तुम्हारी ही धारणाएं हैं, तो तुम खुद से घबरा गए हो. जब खुद से जीत जाते हो तब किसी से तुम्हारी हार हो ही नहीं सकती. तो हर हार तुम्हारी अपने मन की हार है.
ऐसे ही तुम्हारे मन में कोई श्रद्धा है, कोई मूल्य है, जो तुमको नीचे नहीं गिरने देता. अब तुम्हारे में तथा एक डाकू में क्या फर्क है, बताओ? एक डाकू क्या करेगा? किसी का गला घोंट देगा, वह आगे-पीछे नहीं देखता है. क्यों? इतनी धर्म-बुद्धि नहीं है!
अब तुमको कोई कहे, ‘इसका गला घोंट दो’, तो तुम्हारे हाथ कांप जाएगे. तुम गला घोंट नहीं सकते! हाथ ही नहीं उठेगा. क्यों? तुम्हारे में इतना धर्म बैठ गया. कोई कहें कि चोरी करो, चोरी करने के लिए हाथ आगे नहीं जाएगा.
अब जब तुम कोई गलत काम कर बैठते हो कभी, वह चुभता है तुम्हारे भीतर. क्यों चुभता है? क्योंकि तुम्हारे में धर्म है. धर्म नहीं हो, तो नहीं चुभेगा, मगर दुख पाएगा वह व्यक्ति कुछ दिन के बाद. मान लो किसी लालच में आकर किसी ने कोई चीज चुरा ली, चुराने के बाद मन में कुछ समय के लिए खटकता है ना? धकधक करता है भीतर, खुशी नहीं होती.
मान लो एक चांदी का, सोने का हार किसी ने आपको दिया और आपने उसे पहन लिया, उसमें आपको आनंद है; मगर आप चोरी करके यदि पहनते हो, उसमें क्या होता है? खटकता है ना भीतर? पहन तो लिया, कुछ काम तो हो गया, मगर भीतर कहीं कुछ कमी आ गई.
और वही खट्टापन तुम्हारे भीतर ज्यादा बढ़ता चला जाए, तब तुम गिरने लगोगे. फिर तुम्हारा वह, जिसको ‘भाग्य’ कहते हैं, वह भाग्य क्षीण होने लगता है. अधर्म से क्या होता है? मान लो तुम्हारा यह भाग्य है कि तुम्हें कहीं विदेश जाना है, तो तुम सिर्फ पाकिस्तान होकर लौट आओगे. भाग्य तो रहा, मगर क्षीण हो गया, बहुत कुछ कम होकर रह गया.
संपादित अंश ‘जीवन एक सुंदर उत्सव’ से साभार
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