स्वर्ग और मुक्ति का आनंद

Last Updated 07 Nov 2013 04:17:42 AM IST

वस्तुत: स्वर्ग आत्मसंतोष को कहते हैं क्योंकि संसार में वही सबसे अधिक शांतिदायक स्थिति है.


पं. श्रीराम शर्मा आचार्य (फाइल फोटो)

जीवन का अस्तित्व सूक्ष्म है, इसलिए पदार्थों का सुख तो शरीर भर को मिलेगा, सूक्ष्म सत्ता को तो भावनात्मक तृप्ति ही प्रसन्न कर सकती है. धन-दौलत, ऐशोआराम तो भावनाओं का ही होता है और उस स्तर की अनुभूति तभी मिल सकती है जब व्यक्ति का दृष्टिकोण परिष्कृत और क्रिया-कलाप आदर्शवादी मान्यताओं के अनुरूप बन सकें.

मछली जिस प्रकार पानी में ही चैन की सांस ले सकती है, उस प्रकार का चैन ईश्वरीय स्तर की उच्च भूमिका में अवस्थित होने पर ही मिल सकता है. यह भूमिका उच्च विचारणा और क्रियाकलाप आचार पद्धति पर निर्भर है. जिनकी विचारणा और क्रियाकलाप भौतिक स्वार्थपरता पर अवलम्बित है, उन्हें सम्पदा, सुविधा या ख्याति कितनी भी क्यों न मिल जाये, कभी आन्तरिक शांति न मिलेगी. जिसे अपने विचारों और कार्यों की उत्कृष्टता का संतोष जितनी अधिक मात्रा में मिल रहा हो, समझना चाहिए, वह उतने ही ऊंचे स्वर्गलोक में निवास कर रहा है.

नरक भी कोई लोक नहीं है. नरक के जो वर्णन हैं, वे शरीरधारी के लिए संभव हैं. मरने के बाद हवा जैसी सूक्ष्म वस्तु रह जाने वाले जीव को कोड़ों से मारा जाना किस प्रकार संभव होगा? वस्तुत: नरक भोगने के लिए हमें किसी लोक विशेष में जाने या दूसरों द्वारा उत्पीड़न सहने की आवश्यकता नहीं है. यह प्रयोजन तो अपनी दुबरुद्धि और दुष्प्रवृत्ति हर घड़ी पूरा करती रह सकती है.

कुसंस्कारी और दुगरुणी मनुष्य अपने ओछी विचार पद्धति की आग में स्वयं हर घड़ी जलते रहते हैं. यह नरक की ही अनुभूतियां हैं. शारीरिक दु:ख इस संसार में भी कम नहीं हैं. उनके लिए किसी और लोक में जाने की आवयकता नहीं पड़ती. कष्टसाध्य रोगियों को व्यथा से निरन्तर चिल्लाते हुए कहीं भी देखा जा सकता है. कर्मफल के अनुरूप यदि त्रास मिलते हों तो वे यहां भी भरे पड़े हैं. इसलिए नरक की कल्पना को अन्य लोक से जोड़ना उचित नहीं.

दुष्कर्म करने पर उसके फलस्वरूप मिलने वाले सामाजिक और ईश्वरीय दंड को मिलाकर पूरा नारकीय अनुभव किसी कुपथगामी को इसी लोक में मिल सकता है. यदि संसार को भवबन्धन कहा जाये तो यह भी उचित न होगा क्योंकि यह विश्व भगवान का विराट रूप है. जहां कण-कण में भगवान व्याप्त हों, वहां बन्धन कैसा? वहां जन्म लेना और जीवित रहना एक सौभाग्य ही है. उसे भव-बन्धन कैसे कहा जाये? स्वर्ग और मुक्ति अपने दृष्टिकोण को परिष्कृत करके हम इसी जीवन में प्राप्त कर सकते हैं, इसके लिए मृत्यु काल तक की प्रतीक्षा करने की क्या आवयकता है.

 (गायत्री तीर्थ शांतिकुंज हरिद्वार)

पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
आचार्य


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