जगत अनित्य है
अनित्य का अर्थ होता है, जो है भी और प्रति क्षण नहीं भी होता रहता है। अनित्य का अर्थ नहीं होता कि जो नहीं है। जगत है, भलीभांति है।
आचार्य रजनीश ओशो |
उसके होने में कोई संदेह नहीं है क्योंकि यदि वह न हो, तो उसके मोह में, उसके भ्रम में भी पड़ जाने की कोई संभावना नहीं। और अगर वह न हो, तो उससे मुक्त होने का कोई उपाय नहीं।
जगत है। उसका होना वास्तविक है, लेकिन जगत नित्य नहीं है, अनित्य है। अनित्य का अर्थ है, प्रति पल बदल जाने वाला है। क्षण भर भी कुछ ठहरा हुआ नहीं है। बुद्ध ने कहा है : जगत क्षण सत्य है। बस, क्षण भर ही सत्य रह पाता है।
हेराक्लतु ने यूनान में कहा है, यू कैन नॉट स्टेप ट्वाइस इन द सेम रिवर, एक ही नदी में दो बार उतरना संभव नहीं। नदी बही जा रही है। ठीक ऐसे ही कहा जा सकता है, यू कैन नॉट लुक ट्वाइस द सेम र्वल्ड, एक ही जगत को दोबारा नहीं देखा जा सकता। इधर पलक झपकी नहीं कि जगत दूसरा हुआ जा रहा है। इसलिए बुद्ध ने तो अद्भुत बात कही है। कहा कि है शब्द गलत है। है का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। सभी चीजें हो रही हैं। है की अवस्था में तो कोई भी नहीं है। जब हम कहते हैं, यह व्यक्ति जवान है, तो है का बड़ा गलत प्रयोग हो रहा है। बुद्ध कहते थे, यह व्यक्ति जवान हो रहा है। गति है, प्रोसेस है।
स्थिति कहीं भी नहीं है। एक आदमी को हम कहते हैं, यह का है। कहने से लगता है कि का होना कोई स्थिति है, जो ठहर गई है, स्टेगनेंट है। नहीं, बुद्ध कहते थे, यह आदमी का हो रहा है। है की कोई अवस्था ही नहीं होती। सब अवस्थाएं होने की हैं। यह वृक्ष आप देखते हैं; हम कहेंगे, वृक्ष है। जब तक आप कह रहे हैं, तब तक वृक्ष हो गया कुछ और। एक नई कोंपल निकल आई होगी। एक पुरानी कोंपल और पुरानी पड़ गई होगी। एक फूल थोड़ा और खिल गया होगा। एक गिरता फूल गिर गया होगा।
जड़ों ने नये पानी की बूंदें सोख ली होंगी, पत्तों ने सूरज की नई किरणों पी ली होंगी। जब आप कहते हैं, वृक्ष है, जितनी देर आपको कहने में लगती है, उतनी देर में वृक्ष कुछ और हो गया। है जैसी कोई अवस्था जगत में नहीं है। सब हो रहा है-जस्ट अ प्रोसेस। उपनिषद यही कह रहे हैं। उपनिषद का ऋषि कह रहा है, जगत अनित्य है। नित्य कहते हैं, उसे, जो है, सदा है, जिसमें कोई परिवर्तन कभी नहीं, जिसमें कोई रूपांतरण नहीं होता। जो वैसा ही है, जैसा सदा था और वैसा ही रहेगा।
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