सिद्धि

Last Updated 07 May 2020 12:42:28 AM IST

आत्मा और परमात्मा को, जड़ और चेतन को, प्रकृति और पुरु ष को जोड़ देने का नाम योग है। यह ज्ञान और कर्म के दो युग्मों में विभक्त है।


श्रीराम शर्मा आचार्य

ज्ञानयोग वह है जो चिन्तन को हेय स्तर से ऊंचा उठाकर देव स्तर तक ले जाता है और मनोवृत्तियों को ब्रह्मचेतना में नियोजित करता है। कर्मयोग वह है जिसमें दैनिक क्रियाकलाप को परमार्थ प्रयोजन के आधार पर संचालित किया जाता है। शरीर और मन को पूर्व संचित पशु संस्कारों से विरत करके दिव्य जीवन के लिए अभ्यस्त करने की जो शारीरिक, मानसिक व्यायाम पद्धतियां हैं, वे भी योगाभ्यास के नाम से प्रसिद्ध हैं। आसन, प्राणायाम, जप, ध्यान, व्रत, तप, मुद्रा, बंध आदि साधनाएं उसी स्तर की हैं।

ज्ञान और कर्म की दोनों ही धाराएं जब पशु स्तर से ऊंची उठकर देव स्तर की ओर अग्रसर होती हैं, तो उसे समग्र साधना कहते हैं। केवल स्वाध्याय, सत्संग, मनन, चिन्तन, ध्यान प्रभृति ज्ञान पक्ष तक सीमित रहने वाली प्रक्रिया अपूर्ण एवं एकांगी है। उसी प्रकार जिन्होंने चिन्तन परिष्कार को तिलांजलि देकर मात्र विधि विधान को ही सब कुछ मान लिया है, वे भी एक पहिये की गाड़ी चलाने वालों की तरह असफल रहते हैं।

बिजली के ठण्डे और गरम, दो तार जब मिलते हैं तब विद्युत प्रवाह संचालित होता है। इसी प्रकार ज्ञान और कर्म का, समन्वित रूप से भावना और साधना का स्तर समान रूप से आगे बढ़ाया जाता है तो योग साधना की समग्र प्रक्रिया पूर्ण होती है और उसका लाभ मिलता है जो सच्चे योगियों को प्राप्त होता रहा है। अध्यात्म शास्त्र में वर्णित योग साधना का महत्त्व ऐसी ही सर्वागपूर्ण साधना से संपन्न होता है। योग न तो कठिन है, न अशक्य है। वह सर्व साधारण के लिए सुलभ है।

इस मार्ग पर न्यूनाधिक जितना भी चला जा सके तो उतना लाभ ही है। हानि की आशंका तो है ही नहीं। हठयोग प्रदीपिका में कहा गया है युवा, वृद्ध, अतिवृद्ध, रोगी, दुर्बल कोई भी योगाभ्यास करके सिद्धि प्राप्त कर सकता है-युवा वृद्धो वृद्धो वा व्याधितो दुर्बलो पि वा। अभ्यासात्सिद्धिमाप्रोति सर्वयोगेष्वतन्द्रित:।। केवल वेश धारण कर लेने, पढ़ लेने या सुन लेने मात्र से सिद्धि नहीं मिलती। नियमित अभ्यास करना होता है, तब सफलता मिलती है-न वेषधारणं सिद्धे: कारणं न च तत्कथा। क्रियैव कारणं सिद्धे: सत्यमेतन्न संशय:।। 1/64-66।।



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