वसुधैव कुटुम्बकम्
हमारे मनीषियों ने व्यक्तित्व के विकास का रहस्य समझाते हुए यही उद्घोष किया था कि संपूर्ण वसुधा ही हमारा परिवार है।
श्रीराम शर्मा आचार्य |
संसार को एक कुटुम्ब के रूप में तथा सभी व्यक्तियों से पारिवारिक स्नेह के संबंध विकसित किए जा सकें तो व्यक्तिगत जीवन में जो प्रफुल्लता, आत्म संतोष, आनंद और शांति की अनुभूति होगी, वह अन्य किसी माध्यम से संभव नहीं है। अपने हित की साधना का भाव तो पशु-पक्षियों तक में पाया जाता है। अत: इसमें कोई बुद्धिमानी नहीं हो सकती कि मनुष्य संपूर्ण जीवन केवल अपनी ही स्वार्थपूर्ण प्रवंचनाओं में बिता दें। इससे अंत तक मानवीय शक्तियां प्रसुप्त बनी रहती हैं। प्रेम और आत्मीयता की भावनाओं का परिष्कार नहीं हो पाता। स्वार्थपरता एवं संकीर्णता के कारण मनुष्य का जीवन कितना दु:खमय, कितना कठोर हो सकता है, यह सर्वविदित है।
सामान्यत: हम लोग एक ही माता-पिता से उत्पन्न संतान को परस्पर भाई-बहिन समझते हैं। लौकिक दृष्टि से यह सही भी है क्योंकि इसी आधार पर कर्त्तव्य विभाजन और उनका क्षेत्र निर्धारण सुविधापूर्वक किया जा सकता है किंतु भावनात्मक दृष्टि से इतने से ही संतोष नहीं मिलता। तब हमें मानकर चलना पड़ता है कि एक परमात्मा से ही जीवात्मा उत्पन्न और उसी से संबद्ध है, वही हमारा माता-पिता, सर्वस्व है। इस आधार पर संसार के सभी जीवधारियों को अपने से भिन्न नहीं कह सकते। एक पिता जिस तरह अपने बच्चों को प्रगाढ़ स्नेह और प्रेम के सूत्र में बंधा देखना चाहता है, वैसी ही सदिच्छा परमात्मा को भी हमसे हो सकती है। इस सत्य से ही एकता की वृद्धि होती है।
समाज की पूर्ण विकसित रचना के उद्देश्य से महापुरुष सदैव जोर देते हैं कि मनुष्य अपने आपको विश्व समाज का सदस्य मानें। आज भी यह आवश्यकता ज्यों की त्यों विद्यमान है। समाज के ऋणी होने और सामाजिक उत्तरदायित्वों को निभाने की आवश्यकता अनुभव करते हुए भी अभ्यास न होने के कारण लोग सामाजिक गुणों का विकास नहीं कर पाते। इसका प्रमुख कारण यह है कि व्यक्ति प्रारंभ से ही अपने स्वार्थ को प्रधानता देने की शिक्षा पाता है, अथवा सामाजिक गुणों के विकास की शिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं होने के कारण अनायास ही स्वार्थ को प्रधानता देने लगता है।
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