अंत:दृष्टि

Last Updated 28 Mar 2019 05:53:38 AM IST

संसार में जानने को बहुत कुछ है, पर सबसे महत्त्वपूर्ण जानकारी अपने आपके संबंध की है। उसे जान लेने पर बाकी जानकारियां प्राप्त करना सरल हो जाता है।


श्रीराम शर्मा आचार्य

ज्ञान का आरंभ आत्मज्ञान से होता है। जो अपने को नहीं जानता वह दूसरों को क्या जानेगा? आत्मज्ञान जहां कठिन है, वहां सरल भी बहुत कुछ है। अन्य वस्तुएं दूर हैं व उनका सीधा संबंध भी अपने से नहीं है। किसी के द्वारा ही संसार में बिखरा हुआ ज्ञान पाया और जाना जा सकता है। पर अपनी आत्मा सबसे निकट है, हम उसके अधिपति हैं। आदि से अंत तक उसमें समाए हुए हैं, इस दृष्टि से आत्मज्ञान सबसे सरल भी है।  बाहर की चीजों को ढूंढ़ने में मन इसलिए लगा रहता है कि अपने को ढूंढ़ने के झंझट से बचा जा सके। क्योंकि जिस स्थिति में आज हम हैं, उसमें अंधेरा और अकेलापन दीखता है। यह डरावनी स्थिति है। सुनसान को कौन पसंद करता है?

खालीपन किसे भाता है? पर हम स्वयं ही अपने को डरावना बना लिया है और उससे भयभीत होकर स्वयं ही भागते हैं। अपने को देखने, खोजने और समझने की इच्छा इसी से नहीं होती और मन बहलाने के लिए बाहर की चीजों को ढूंढ़ते फिरते हैं? क्या वस्तुत: भीतर अंधेरा है? क्या वस्तुत: हम अकेले और सूने हैं? नहीं। प्रकाश का ज्योति पुंज अपने भीतर विद्यमान है और एक पूरा संसार ही अपने भीतर विराजमान है। उसे पाने और देखने के लिए आवश्यक है कि मुंह अपनी ओर हो। पीठ फेर लेने से तो सूर्य भी दिखाई नहीं पड़ता और हिमालय तथा समुद्र भी दीखना बंद हो जाता है।

फिर अपनी ओर पीठ करके खड़े जो जाएं, तो शून्य के अतिरिक्त दीखेगा भी क्या? बाहर केवल जड़ जगत है। पंचभूतों का बना निर्जीव। बहिरंग दृष्टि लेकर तो हम मात्र जड़ता ही देख सकेंगे। अपना जो स्वरूप आंखों से दीखता है, कानों से सुनाई पड़ता है जड़ है। ईर को भी यदि बाहर देखा जाएगा, तो उसके रूप में जड़ता या माया ही दृष्टिगोचर होगी। अंदर जो है, वही सत् है। इसे अंतर्मुखी होकर देखना पड़ता है। आत्मा और उसके साथ जुड़े हुए परमात्मा को देखने के लिए अंत:दृष्टि की आवश्यकता है। इस प्रयास में अंतर्मुखी हुए बिना काम नहीं चलता।  



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