ज्ञान मार्ग
जो मनुष्य अपने वास्तविक स्वरूप को समझ लेता है, उसका संबंध परमात्म तत्त्व से स्पष्ट और प्रकट हो जाता है, जिसकी अभिव्यक्ति उच्च शक्तियों के रूप में होकर संसार को प्रभावित करने लगती है और लोग उस व्यक्ति को अवतार, ऋषि, योगी आदि के रूप में पूजने और मनन करने लगते हैं.
श्रीराम शर्मा आचार्य |
परमात्म तत्त्व वह अनंत जीवन, वह सर्वव्यापी चैतन्य और वह सवरेपरि सत्ता है, जो इस जगत के पीछे अदृश्य रूप से काम करती, इसका नियमन और नियंत्रण करती है, जिससे दृश्यमान जीवन आता है. इसी अनंत, असीम और अनादि ज्ञान और शक्ति के भंडार से संबंध स्थापित हो जाने से साधारण मनुष्य असाधारण बनकर अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञाता हो जाता है. अणु-अणु का मूलाधार वह परमात्म तत्त्व ही है. आकार-प्रकार में भिन्न दिखते हुए भी प्रत्येक पदार्थ एवं प्राणी एक उसी तत्त्व का अंश है. जिस प्रकार समुद्र से उठाया हुआ एक जल बिन्दु भिन्न दिखता हुआ भी मूलत: उसी का संक्षिप्त स्वरूप होता है और समुद्र की सारी विशेषताएं उसमें होती हैं, उसी प्रकार व्यक्तिगत जीवन और समष्टिगत जीवन सीमित और असीमित के मिथ्या के भेद के साथ तत्त्वत: एक ही है. जो जीवात्मा है, वही परमात्मा और जो परमात्मा है, वही जीवात्मा. इस सत्य को जानना ही आत्म ज्ञान है.
हममें और परमात्मा में कोई भेद नहीं है. यही ज्ञान अथवा अनुभव आत्मानुभूति आत्म प्रतीति अथवा आत्म ज्ञान के अर्थ में मानी गई है. प्रतीति के साथ शक्ति का अटूट संबंध है, जिसे अपने प्रति सर्वशक्तिमान की प्रतीति होती है. अपने प्रति इस प्रतीति की स्थापना करने का प्रयास ही आत्म ज्ञान की ओर अग्रसर होना है. जिसका उपाय आत्म चिंतन के अलावा क्या हो सकता है? जब यह चिंतन अभ्यास पाते-पाते अविचल, असंदिग्ध अतर्क और अविकल्प हो जाता है, तभी मनुष्य में आत्म ज्ञान का दिव्य प्रकाश अपने आप विकर्ण हो जाता है, दिव्य शक्तियां स्वयं आकर उसका वरण करने लगती हैं. आत्म ज्ञान ही मनुष्य का सर्वोच्च लक्ष्य है जिसने इस लक्ष्य की ओर ध्यान नहीं दिया, भौतिक विभूतियों के लोभ में इसकी उपेक्षा कर दी, उसने मानो मानव जीवन का सारा मूल्य गंवा दिया. यह भूल मनुष्य जैसे विवेकशील प्राणी के लिए अनुचित है. इस अविवेक को त्याग कर हर भटके हुए व्यक्ति को शीघ्र से शीघ्र ज्ञान मार्ग को अपना लेना चाहिए.
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