धर्म
भारतीय संस्कृति मनुष्य मात्र तो क्या, संसार के प्राणी मात्र और अखिल ब्रrाण्ड तक को भगवान का विराट रूप मानती है.
श्रीराम शर्मा आचार्य (फाइल फोटो) |
‘धर्म’ शब्द की व्युत्पत्ति से ही विराट की एकतानता का भाव स्पष्ट हो जाता है. जो वास्तविकता है, उसी को धारण किए रखना धर्म है.
वास्तविकता है-चैतन्य. सभी धर्मो में आत्मा के नित्यत्व को, शातपन को स्वीकार किया गया है. लेकिन अंगांगों में पृथक दिखाई देते रहने पर भी जो उसमें एकत्व है, उसको सुरक्षित रखने की ओर ध्यान न देने से विविध संप्रदायों की सृष्टि हो पड़ी है.
हिंदू धर्म में इस एकता को बनाए रखने, जागृत रखने की प्रवृत्ति अभी तक कायम है. यही कारण है कि संसार में नाना संप्रदायों-मजहबों की सृष्टि हुई, लेकिन आज उनका नाम ही शेष है, पर हिंदू धर्म अपनी विशालता के साथ जीवित है. हिंदू धर्म की विशेषता की सबसे बड़ी देन उसकी अपनी विशिष्ट उपासना-पद्धति है.
विश्व-आत्मा की उपासना के लिए उसके समय-विभाग में कोई एक समय निश्चित नहीं है. उपासना देश और काल में विभाजित नहीं है. उसका तो प्रत्येक क्षण उपासनामय है. वे अपने विश्व चैतन्य को एक क्षण के लिए भी भूलना नहीं चाहते, बल्कि गति-विधि का प्रत्येक भाग इन चैतन्यदेव के लिए ही लगाना चाहते हैं. उपासना की दृष्टि से विराट पुरुष चार भागों में विभक्त हैं और समय भेद से भी उनके चार भाग कर दिए गए हैं जो वर्ण एवं आश्रमों के नाम से पुकारे जाते हैं.
यों समस्त ब्रrाण्ड में वर्ण-धर्म और आश्रम पाए जाते हैं, लेकिन हिंदू संस्कृति उन्हें पृथक नहीं रहने देना चाहती. उसकी दृष्टि में उनका अस्तित्व तभी तक है, जब तक कि विराट पुरुष की रक्षा के लिए उनकी गति-विधि है. अन्य संस्कृतियों या धर्मो की गतिविधि विराट के प्रति नहीं है. वे अंगों के अंशों तक ही सीमित हैं.
कोई भी बुद्धि विशिष्ट व्यक्ति इस बात को स्वीकार किए बिना नहीं रह सकता कि समस्त शरीर का ध्यान छोड़कर शरीर के किसी एक अंग का ध्यान रखने से शरीर की रक्षा संभव नहीं हो सकती. जो लोग चैतन्य को भुलाकर केवल अंगों तक ही अपने को सीमित रखते हैं, उनकी सत्ता कैसे स्थिर रख सकती है? वस्तुत: आन्तर-बाह्य, आत्मा और शरीर दोनों को समान महत्त्वे देने से ही उस विराट की उपासना हो सकती है. भारतीय संस्कृति यही सिखाती है.
(गायत्री तीर्थ शान्ति कुंज, हरिद्वार)
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