शिक्षा व्यवस्था
अब अब हमारी शिक्षा प्रणाली सिर्फ उद्योग और कारोबार जगत की सेवा कर रही है, न कि मानव जाति की.
जग्गी वासुदेव |
हमारी शिक्षा व्यवस्था महान इंसान पैदा करने के लिए काम नहीं कर रही, यह तो बस इंजीनियर, डॉक्टर, मैनेजर व सुपरवाइजर पैदा करने के लिए काम कर रही है. आप अपने यहां चल रही एक बड़ी सी आर्थिक मशीन का सिर्फ एक पुजा हैं.
ऐसे में अचानक बड़े पैमाने पर शिक्षा व्यवस्था को बदल देने का तो सवाल ही नहीं उठता, लेकिन अगर आप इच्छुक हैं तो अपने व अपने बच्चों के लिए इसमें बदलाव ला सकते हैं. अपने यहां एक व्यवस्था थी जो ‘वर्णाश्रम धर्म’ कहलाती थी, जो जीवन के अलग-अलग चरण होते थे, जिसके लिए हर इंसान को तैयार होना होता था. जन्म से लेकर बारह साल तक की उम्र ‘बाल्यावस्था’ कहलाती थी. इस उम्र में बच्चों को कुछ नहीं करना होता था.
बस खाना, खेलना और सोना. न एबीसीडी, न एक-दो-तीन का चक्कर, कुछ नहीं होता था. उसकी वजह थी कि मस्तिष्क के अपने पूर्ण आकार तक विकसित होने से पहले अगर इसमें किसी तरह की जानकारी, सूचना या लक्ष्य डालते रहा जाए तो इसके अपने पूर्ण आकार तक विकसित होने की संभावना को नुकसान होता है. भारत में या संभवत: हर जगह, वे किसान जिनके पास आम का बगीचा होता है, वे एक खास तरह की प्रक्रिया अपनाते हैं.
अगर आपके घर में या आसपास आम का पौधा होगा तो आपने देखा होगा कि इसे लगाए जाने के दूसरे ही साल से इसमें बौर आने लगती है. लेकिन अनुभवी किसान जनवरी-फरवरी में ही उस पौधे के हर बौर को तोड़कर फेंक देता है, ताकि वे बौर कभी फल नहीं बन पाएं. लेकिन अगर आप तिमाही बैलेंस शीट रखने वाले व्यापारी किस्म के इंसान हुए तो आप फूलों या बौरों को गिन कर कहेंगे, ‘अच्छा, मुझे यहां डेढ़ सौ आम के बौर दिखाई दे रहे हैं. डेढ़ सौ आमों को अगर दस रु पये के हिसाब से जोड़ें तो पंद्रह हजार रु पये हर पेड़ के बनते हैं.
और मेरे पास तो दस हजार पेड़ हैं.’ और इस तरह आप उनमें फल लगने देंगे, क्योंकि उनके बौर तोड़ने में आपको ज्यादा नुकसान दिखेगा. हालांकि उनमें कोई बहुत अच्छे फल नहीं निकलेंगे, लेकिन वे फिर भी फल तो देंगे ही. अगर आप ऐसा करेंगे तो वह पेड़ कभी भी अपनी पूरी क्षमता तक नहीं बढ़ पाएगा. यहां तक कि पौधों के बारे में भी हम इस सच्चाई को जानते हैं. फिर ऐसा क्यों है कि हम अपने बच्चों के साथ ये सब नहीं जानते या करते?
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