प्रणाम
प्रणाम का सीधा संबंध प्रणत शब्द से है, जिसका अर्थ होता है विनीत होना, नम्र होना और किसी के सामने शीश झुकाना.
सुदर्शनजी महाराज (फाइल फोटो) |
प्राचीन काल से प्रणाम की परंपरा रही है. जब कोई व्यक्ति अपने से बड़ों के पास जाता है तो वह प्रणाम हो जाता है. अब व्यक्ति की कामनाएं अनंत होती हैं. कैसी कामना लेकर वह व्यक्ति अपने से बड़ों के पास गया है, यह उस व्यक्ति पर निर्भर करता है.
प्रणत व्यक्ति अपने दोनों हाथों की अंजली अपनी छाती से लगाकर बड़ों को प्रणाम के समय इस तरह करता है कि वह अपने दोनों हाथ जोड़कर, हाथों का पात्र बनाकर प्रणाम कर रहा है. प्रणाम के समय दोनों हाथ की अंजलि छाती से सटी हुई होनी चाहिए, ऐसे ही प्रणाम करने की परंपरा रही है. लेकिन प्राचीन गुरुकुलों में दंडवत प्रणाम का विधान था, जिसका अर्थ है बड़ों के पैर पर डंडे की तरह पड़ जाना.
इसका उद्देश्य यह था कि गुरु के पांवों के अंगूठा से जो ऊर्जा प्रवाह हो रहा है उसे अपने मस्तक पर धारण करना. इसी ऊर्जा के प्रभाव से शिष्य के जीवन में परिवर्तन होने लगता है. इसके अतिरिक्त हाथ उठाकर भी आशीर्वाद देने का विधान है. इस मुद्रा का भी वही प्रभाव होता है कि हाथ की उंगलियों से निकला ऊर्जा प्रवाह शिष्य के मस्तिष्क में प्रवेश करें.
मगर आज के परिवेश में प्रणाम करने की जो परंपरा है वह बहुत ही हास्यास्पद है. क्योंकि प्रणाम करनेवाला न कोई पात्रा लेकर अथवा कोई कामना लेकर अपने से बड़ों को प्रणाम करता है और न बड़े उन्हें आशीर्वाद देते हैं. दोनों तरफ से नकली कारोबार चलता रहता है. इसका परिणाम यह है कि प्रणाम करने वाला जिस प्रकार आज प्रणाम करता है वह एक नाटक करता है, अथवा अपने से बड़ों को प्रणामनुमा कुछ करता है.
प्रणाम तो हृदय से निकले वाली कामनाएं हैं, एक आमंत्रण है. केवल भक्त की आंखों को देखकर ही यह बताया जा सकता है कि प्रणाम असली है या नकली. हमारे यहां प्रणाम हृदय से किया जाता है, और जब उस प्रणाम को आशीर्वाद मिलता है तो उसका प्रत्यक्ष फल भी मिलता है. लेकिन शर्त यह है कि प्रणाम कितनी सच्चाई से किया गया है.
प्रणाम सीधी तरह से बड़ों के समक्ष आत्मनिवेदन है और, आत्मनिवेदन कभी भी नकली नहीं होगा. उसे हर हालत में असली होना पड़ेगा, तभी प्रणाम फलीभूत हो सकेगा.
| Tweet |