सगुणोपासना
कौन कहता है ईसाई धर्म में मूर्ति पूजा नहीं होती? ईसाई धर्म भी मूर्ति पूजा को महत्त्व देता है.
आध्यात्मिक गुरू श्रीश्री रविशंकर. |
ईसाई सब जगह क्रॉस का चिह्न बना देते हैं, सड़क पर भी, पहाड़ों के ऊपर भी, है न? बहुत सी मस्जिदें भी बहुत जगह पर बन रही हैं. अब, किस हद तक मूर्ति पूजा हिंदू धर्म में स्वीकार्य है? यह एक विचार करने लायक प्रश्न है. जब भी लोगों ने मूर्ति पूजा का विरोध किया है, किसी और प्रकार का प्रतीकवाद उभर आया है. एक मूर्ति क्या है? एक चिह्न है.
ईश्वर जो निराकार है, जिसका विवरण नहीं हो सकता, जिसे देखा या छुआ नहीं जा सकता, उस ईश्वर को देखने और समझने के लिए आपको एक माध्यम की आवश्यकता है और उस माध्यम को आप मूर्ति कहते हैं. भगवान उस मूर्ति में नहीं बसते. परंतु एक मूर्ति आपको ईश्वर का मार्ग दिखाती है. देखो, आपके घर में आपके दादा या नाना जी की एक तस्वीर है, दीवार पर.
अब यदि कोई आपसे पूछे, 'आपके दादाजी कौन हैं?' आप उस तस्वीर की ओर संकेत करते हैं. क्या वह तस्वीर आपके दादाजी हैं? नहीं, आपके दादाजी अब नहीं हैं, पर यदि कोई पूछे तो आप उस तस्वीर की ओर संकेत करके कहते हैं, 'ये हैं मेरे दादाजी.' तो एक तस्वीर, या मूर्ति एक माध्यम या प्रतीक है, इसीलिए उसे प्रतिमा कहा जाता है. और यह अच्छा है कि केवल एक छवि या प्रतीक नहीं है भगवान का. अन्यथा लोग भगवान को उसी रूप में सोचेंगे. इसीलिए, यहां भारत में भगवान की हजारों भिन्न प्रतिमाएं हैं.
आप भगवान को किसी भी रूप देख सकते हैं, जो भी आपको प्रिय है, आपके इष्ट देवता है. सारी किरणों उसी सूर्य से आती हैं, पर इनके सात भिन्न रंग होते हैं. इसी तरह, हमारे पञ्च देवता होते हैं, (ईश्वर के पांच रूप जो सब विधियों और धार्मिंक कार्यों में पूजे जाते हैं- शिव, पार्वती, विष्णु, गणेश, और सूर्य देव), और सप्त मातृका (अर्थात दैवी शक्ति के सात स्वरूप ब्रह्माणी, नारायणी, इन्द्राणी, महेश्वरी, वाराही, कुमारी और चामुंडा) उसी प्रकार, भगवान एक है, पर हमारे पूर्वजों ने उन्हें भिन्न नाम और आकार दिए हैं.
फिर एक प्रथा है भगवान की प्रतिमा को जाप द्वारा बनाना और भक्ति पूजा करना. जो भी आकार जाप द्वारा बनता है, भक्ति के साथ, और एक सम्मान का स्थान पाता है, वही पूजनीय हो जाता है. कोई भगवद गीता या गुरु ग्रन्थ साहिब को मात्र घर पर रख सकता है. परन्तु, जब आप उसकी पूजा करते हैं, तो उसका अर्थ भिन्न होता है.
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