संतोष
श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं \'जो मनुष्य किसी फल की इच्छा के बिना अपना कर्तव्य भली-भांति निभाता है, वही संन्यासी है और वही योगी है. सिर्फ कार्य और अग्नि को त्याग कर संन्यासी बनना संभव नहीं है.
धर्माचार्य जग्गी वासुदेव (फाइल फोटो) |
हे पांडुपुत्र, संन्यास ही योग है क्योंकि सभी स्वार्थों को त्याग कर ही योग को प्राप्त किया जा सकता है. जिसने अभी-अभी योग की शुरु आत की है, वह मनुष्य कर्म द्वारा योग को प्राप्त कर सकता है. मगर जो लोग पहले ही योग को प्राप्त कर चुके हैं, वे सभी कार्यों को त्याग कर ही उसमें सिद्ध हो सकते हैं.
इंद्रियजनित वस्तुओं और कार्यों के प्रति हर तरह का जुड़ाव समाप्त होने, सभी सांसारिक इच्छाओं के समाप्त हो जाने पर कोई मनुष्य योग को प्राप्त कर सकता है. कोई अपने मन के द्वारा अपनी उन्नित करता है, या अवनति, यह उसके ऊपर है क्योंकि मन मनुष्य का मित्र भी हो सकता है और शत्रु भी.
मान लीजिए, आप एक एकाउंटेंट हैं. ऑफिस जाना, जोड़-घटाव करना, घर आना, आपको नहीं उलझाता. मगर आप ऑफिस इसलिए जाते हैं क्योंकि उससे आपको इज्जत, सुविधाएं और दूसरे फायदे मिलते हैं.
आप इसलिए ऑफिस नहीं जा रहे क्योंकि आपको जोड़-घटाव करने में मजा आता है. वह यही चीज आपको छोड़ने के लिए कह रहे हैं. अगर आपको तनख्वाह, इज्जत, सामाजिक सुविधाएं, किसी तरह का कोई लाभ न मिले, तो क्या आप तब भी काम करने के इच्छुक होंगे? ऐसा नहीं है कि आपको जो कुछ हासिल है, उसे आपको नहीं खाना या उसका आनंद नहीं उठाना चाहिए, मगर यदि ये चीजें नहीं होतीं, तो क्या आप तब भी इतनी ही तत्परता से काम करते? यहां पर सबसे महत्त्वपूर्ण बस यही है.
यहां आश्रम में जो स्वयंसेवक रसोईघर में खाना पका रहे हैं, जो लोग फूलों को सजा रहे हैं, या बाकी सारा काम कर रहे हैं, इन्हें कोई इनाम नहीं मिल रहा. उन्हें इस काम के पैसे नहीं दिए जाते, उन्हें हॉल में बैठने तक को नहीं मिलता. मगर क्या आपको लगता है कि वे कोई चीज नाराजगी से करते हैं, जैसे, \'मुझे तो लीला में भाग लेने को भी नहीं मिलता, तो मैं यह सब क्यों करूं?\' ऐसा कोई नहीं है. वे आराम से ये काम कर रहे हैं.
यही कर्म के फल का त्याग करना है. फल की इच्छा किए बिना, प्रयास किया जा रहा है. अक्सर, मेरी ओर से आभार का एक शब्द भी नहीं होता है क्योंकि मैं नहीं चाहता कि वे उसमें भी उलझें.
| Tweet |