विश्वास और श्रद्धा
यदि तुम विश्वास करते हो, तुम कभी भी जान नहीं पाओगे. यदि तुम सचमुच जानना चाहते हो, विश्वास मत करो.
आचार्य रजनीश ओशो |
इसका यह मतलब नहीं होता है कि अविश्वास करो, क्योंकि अविश्वास अलग तरह का विश्वास है. विश्वास मत करो, पर प्रयोग करो. अपने पर जाओ, और यदि तुम देख सको, यदि तुम महसूस कर सको, तो ही विश्वास करो. लेकिन तब यह विश्वास नहीं रहता; तब यह श्रद्धा होती है. यह श्रद्धा और विश्वास में फर्क है : श्रद्धा अनुभव से आती है; विश्वास पूर्वाग्रह है जो अनुभव के सहारे के बिना है.
इसलिए विश्वास मत करो कि शास्त्र कहते हैं, और इसलिए विश्वास मत करो सम्माननीय लोग कहते हैं, क्योंकि हो सकता है कि वे यह इसलिए कह रहे हैं क्योंकि यह कहने से वे सम्माननीय हो जाते हैं. इसलिए विश्वास मत करो कि पंडित-पुजारी कहते हैं, क्योंकि पंडित सभी तरह का व्यवसाय कर रहे हैं. उन्हें वैसा कहना ही है ; वे विक्रेता हैं. वे कुछ अदृश्य उपयोग की वस्तुएं बेच रहे हैं, जो कि देखी नहीं जा सकती पर तुम्हें विश्वास करना होता है.
प्रयोग करो, सभी बातों के लिए अस्तित्वगत अनुभव के लिए जाओ. प्रयोगशाला बन जाओ- तुम्हारी अपनी प्रयोगशाला. और जब तक कि यह तुम्हारी अपनी समझ ना बने, विश्वास मत करो. और तब ही तुम श्रद्धा बन सकते हो. जिस सत्य पर विश्वास किया जाता है वह झूठ है. अनुभव का सत्य पूरी अलग ही घटना है. यह वैज्ञानिक मन का ढंग है.
यदि तुम श्रद्धा कर सको, कुछ न कुछ हमेशा होता रहेगा और तुम्हारे विकास में मदद करेगा. तुम्हें उपलब्ध रहेगा. विशेष समय पर जिस किसी भी चीज की जरूरत होगी वह तुम्हें उपलब्ध करवाया जाएगा, उसके पहले नहीं. तुम्हें तब ही मिलेगा जब तुम्हें उसकी जरूरत होगी, और वहां एक क्षण की भी देरी नहीं होगी. जब तुम्हें जरूरत होगी तुम्हें मिल जाएगा, तत्काल, उसी समय! श्रद्धा की यह खूबसूरती है.
धीरे-धीरे तुम यह सीखते हो कि कैसे अस्तित्व तुम्हें हर चीज उपलब्ध करवा रहा है, कैसे अस्तित्व तुम्हारा ध्यान रखता है. तुम ऐसे अस्तित्व में नहीं जी रहे हो जो उपेक्षा से भरा है. वह तुम्हारी उपेक्षा नहीं करता. तुम नाहक चिंता से भरे रहते हो; तुम्हें हर चीज उपलब्ध करवायी जाती है. एक बार श्रद्धा की दक्षता तुम सीख लेते हो, सारी चिंताएं विदा हो जाती हैं.
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