आपके भीतर है परमात्मा

Last Updated 12 Feb 2016 01:20:51 AM IST

मनुष्य ने कितने-कितने उपाय किए हैं कि परमात्मा को बाहर खोज ले; कभी मंदिर की मूर्ति के सामने धूप जलाई है, दीये जलाए हैं.


आचार्य रजनीश ओशो

कभी मंदिर की मूर्ति के सामने बलिदान दिए हैं-भेड़, बकरी, आदमियों के भी; नरमेध यज्ञ भी आदमियों ने किए हैं. लेकिन बकरी को, भेड़ को, या आदमी को काट डालने से कैसे तुम परमात्मा पा लोगे? बड़े सस्ते में पाने चले हो-एक बकरी काट दी, कि एक भेड़ काट दी; किसको धोखा दे रहे हो?

अपने को काटे बिना कोई भी परमात्मा को नहीं पा सकता. लेकिन आदमी अपने को बचाता है और किसी दूसरे को चढ़ाता है. बकरी के काटने से शायद बकरी पा ले; बाकी तुम कैसे पा लोगे? और बकरी भी नहीं पा सकेगी; क्योंकि उसने स्वयं को नहीं काटा है. स्वयं का बलिदान कर देना, स्वयं को मिटा देना ही सूत्र है-स्वयं को पा लेने का. परमात्मा के साथ भी आदमी सौदा कर रहा है कि चलो एक बकरी को चढ़ा देते हैं; चलो रु पया चढ़ाए देते हैं. आदमी ने आदमी को भी चढ़ाया. फिर यह बात बेहूदी होती गई, तो आदमी ने प्रतीक खोज लिये. पहले आदमी खून चढ़ाता था, अब वह सिंदूर लगाता है. वह खून का प्रतीक है. पहले आदमी सिर को चढ़ाता था, अब नारियल चढ़ाता है.

नारियल आदमी की खोपड़ी जैसा है-दो आंख भी दिखाई पड़ती है और दाढ़ी-मूंछ सब है. आदमी के सिर फोड़े हैं आदमी ने मंदिर की मूर्ति के सामने; फिर वह जरा अमानवीय हो गया, तो प्रतीक खोज लिए हैं. लेकिन अपने को चढ़ाने से आदमी बचता रहा. ये सब तरकीबें हैं-अपने को चढ़ाने से बचाने की. लेकिन आदमी बचना चाहता है, अपने को बदलने से. यह थोड़ा समझ लें. अपने को बदलने से बचना चाहता है और यह अहंकार भी बचाए रखना चाहता है कि हम अपने को बदलने की कोशिश कर रहे हैं.

इसी से सारा उपद्रव पैदा हुआ है. अहंकार कहता है, इतना नहीं; कुछ और करो, कुछ बड़ा करके दिखाओ. यह सब तो यहीं पड़ा रह जाएगा. तो कुछ धर्म-पुण्य भी करो. तो तुम समझौता कर लेते हो, क्योंकि धर्म-पुण्य तो कठिन मामला है-उसमें तो तुम्हें पूरा जीवन बदलना पड़ेगा-तो तुम कहते हो कि कोई सस्ती तरकीब. तो तरकीब यह है कि तुम तीर्थ कर आओ. एक चार दिन की छुट्टी निकाल लो. ध्यान रहे, धर्म को कोई भी संसार में से छुट्टी निकालकर नहीं कर सकता. धार्मिकता जब होती है, तब तुम्हारे चौबीस घंटे धर्म में बहने लगते हैं. धर्म कुछ ऐसा नहीं है कि पंद्रह  मिनट कर लिया और बाकी फिर पौने चौबीस घंटे मजे से अधर्म किया. खंड-खंड नहीं हो सकता. धर्म तो सांस की तरह है : जब तक चौबीस घंटे न चले, तब तक उसका कोई सार नहीं है.
साभार : ओशो वर्ल्ड, फाउंडेशन, नई दिल्ली



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