परम आनंद की खोज
परम आनन्द को समझा नहीं जा सकता परमानन्द की स्थिति पाना अत्यन्त कठिन है.
धर्माचार्य श्री श्री रविशंकर |
जीवन में तलाश है केवल परमानंद की- अपने स्रोत के साथ तुम्हारा दिव्य मिलन और संसार में बाकी सब-कुछ तुम्हें इस लक्ष्य की प्राप्ति से विचलित करता है.
असंख्य कारण, विभिन्न तरीकों से तुम्हें अपनी मंजिल से विमुख करते हैं, लाख बहाने, जो न समझे जा सकते हैं, न बताए जा सकते हैं, तुम्हें घर नहीं पहुंचने देते. मन चंचल रहता है राग और द्वेष से, ऐसा होना चाहिए, ऐसा नहीं होना चाहिए और इच्छाओं से मन का अस्तित्य बना रहता है. परमानंद वास है. दिव्यता का, सभी देवों का. केवल मानव शरीर में ही इसे पाया जा सकता है, समझा जा सकता है. और मानव जीवन पाकर, तथा इस मार्ग पर आकर भी यदि तुम्हें यह समझ में नहीं आता, तब इससे बड़ा नुकसान नहीं.
राग और द्वेष तुम्हारे हृदय को कठोर बना देते हैं. तुम्हारे व्यवहार में रूखापन हो सकता है, पर दिल में कठोरता नहीं होनी चाहिए. व्यवहार के रूखेपन को सहा जा सकता है, परंतु दिल की कठोरता को नहीं. ईश्वर को यह नहीं परवाह कि तुम बाहर से कैसे हो वे केवल तुम्हारे अंदर देखते हैं.
कभी भी अपने दिल में थोड़ा सा राग या द्वेष का अंश मत रहने दो. इसे तो गुलाब के फूल की तरह ताजा, कोमल और सुगंधित बना रहने दो. यह ऐसा मायाजाल है- तुम किसी व्यक्ति या वस्तु को न पसन्द करते हो, और यह तुम्हारे हृदय को कठोर बनाता है और इस कठोरता को निर्मल होने में, खत्म होने में बहुत समय लगता है. यह एक ऐसा जाल है जो तुम्हें अनमोल खजाने से दूर रखता है.
इस भौतिक संसार में कुछ भी तुम्हें तृप्ति नहीं दे सकता. बाहरी दुनिया में संतुष्टि खोजने वाला मन अतृप्त हो जाता है और यह अतृप्ति बढ़ती ही जाती है. शिकायतें तथा नकारात्मक स्वभाव दिमाग को कठोर बनाने लगते हैं, सजगता को (प्रभामण्डल को) ढक देते हैं, पूरे वातावरण में नकारात्मक शक्ति का विष फैला देते हैं. जब नकारात्मकता की अति हो जाती है, एक अत्यधिक फूले हुए गुब्बारे की तरह फूट जाती है और वापस ईश्वर के पास आ जाती है.
सच्चे साधक के लिए एक अंतरंग वार्ता से साभार
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