आकांक्षारहित हो प्रार्थना

Last Updated 10 Oct 2015 12:19:46 AM IST

पहली बात, परिणाम की जब तक आकांक्षा है, तब तक प्रार्थना पूरी न होगी. या यूं कहो- परिणाम की जब तक आकांक्षा है, परिणाम न आएगा.


आचार्य रजनीश ओशो

प्रार्थना तो शुद्ध होनी चाहिए, परिणाम से मुक्त होनी चाहिए, फलाकांक्षा से शून्य होनी चाहिए. कम से कम प्रार्थना तो फलाकांक्षा से शून्य करो. कृष्ण तो कहते हैं कि दुकान भी फलाकांक्षा से शून्य होकर करो; युद्ध भी फलाकांक्षा से शून्य होकर लड़ो. तुम कम से कम इतना तो करो कि प्रार्थना फलाकांक्षा से मुक्त कर लो. उस पर तो पत्थर न रखो फलाकांक्षा के. फलाकांक्षा के पत्थर रख दोगे, प्रार्थना का पक्षी न उड़ पाएगा. तुमने शिला बांध दी पक्षी के गले में. अब तुम पूछते हो- ‘प्रार्थनाएं परिणाम न लाएं तो क्या करें?’

प्रार्थनाएं जरूर परिणाम लाती हैं मगर तभी जब परिणाम की कोई आकांक्षा नहीं होती. यह विरोधाभास तुम्हें समझाना ही होगा. यह धर्म की अंतरंग घटना है. यह उसका राजों का राज है. जिसने मांगा, वह खाली रह गया; और जिसने नहीं मांगा, वह भर गया. तुम्हारी तकलीफ समझता हूं, क्योंकि प्रार्थना हमें सिखाई ही गई है मांगने के लिए. जब मांगना होता है कुछ, तभी लोग प्रार्थना करते हैं, नहीं तो कौन प्रार्थना करता है? लोग दुख में याद करते हैं परमात्मा को, सुख में कौन याद करता है? मगर सुख में याद करने का मतलब यही होता है कि अब कोई आकांक्षा नहीं होगी. सुख तो है ही, अब मांगना क्या है?

जब सुख में कोई प्रार्थना करता है तो प्रार्थना केवल धन्यवाद होती है. जब दुख में कोई प्रार्थना करता है तो प्रार्थना में भिखमंगापन होता है. सम्राट से मिलने चले हो भिखारी होकर, दरवाजों से ही लौटा दिए जाओगे. पहरेदार भीतर प्रवेश न होने देंगे. सम्राट से मिलने चले हो, सम्राट की तरह चलो. सम्राट की चाल क्या है? न कोई वासना है, न आकांक्षा है; जीवन का आनंद है और आनंद के लिए धन्यवाद है. जो दिया है, वह इतना है. और क्या मांगना है? बिना मांगे इतना दिया है.

एक गहन तज्ञता का भाव-वहीं प्रार्थना है. मगर तुम्हारी अड़चन मैं समझा. बहुतों की अड़चन यही है. प्रार्थना पूरी नहीं होती तो शक होने लगता है परमात्मा पर. कैसा मजा है. प्रार्थना पर शक नहीं होता-कि मेरी प्रार्थना में कोई गलती तो नहीं हो रही? परमात्मा पर शक होने लगता है. मेरे पास लोग आकर कहते हैं कि प्रार्थना तो पूरी होती ही नहीं है हमारी, जनम-जनम हो गए! तो परमात्मा है भी या नहीं? परमात्मा पर शक होता है. देखना मजा! अपने पर शक नहीं होता-कि मेरी प्रार्थना में कहीं कोई भूल तो नहीं? नाव ठीक नहीं चलती तो मेरी पतवारें गलत तो नहीं हैं? दूसरा किनारा है या नहीं, इस पर शक होने लगता है.

साभार: ओशो वर्ल्ड फाउंडेशन, दिल्ली



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