सत्संग : कृष्ण से विलग मानना माया

Last Updated 28 Aug 2015 12:35:33 AM IST

स्वरूपसिद्ध व्यक्ति से ज्ञान प्राप्त होने का परिणाम यह होता है कि पता चल जाता है कि सारे जीव भगवान श्रीकृष्ण के भिन्न अंश हैं.


धर्माचार्य स्वामी प्रभुपाद

कृष्ण से पृथक अस्तित्व का भाव माया (मा अर्थात नहीं और या अर्थात यह) है. कुछ लोग सोचते हैं कि हमें कृष्ण से क्या लेना-देना है. वे तो केवल महान ऐतिहासिक पुरुष हैं और परब्रह्म तो निराकार है.

वस्तुत: जैसा कि भगवद्गीता में कहा गया है यह निराकार ब्रह्म का व्यक्तिगत तेज है. कृष्ण भगवान के रूप में प्रत्येक वस्तु के कारण हैं. ब्रह्मसंहिता में स्पष्ट कहा गया है कि कृष्ण श्रीभगवान हैं और सभी कारणों के कारण हैं. यहां तक कि लाखों अवतार उनके विभिन्न विस्तार ही हैं.

इसी प्रकार सारे जीव भी कृष्ण के अंश हैं. मायावादियों की यह मिथ्या धारणा है कि कृष्ण अपने अनेक अंशों में अपने निजी पृथक अस्तित्व को मिटा देते हैं. यह विचार सर्वथा भौतिक है. भौतिक जगत में हमारा अनुभव है कि यदि किसी वस्तु का विखंडन किया जाए तो उसका मूल स्वरूप नष्ट हो जाता है. किंतु मायावादी यह नहीं समझ पाते कि परम का अर्थ है कि एक और एक मिलकर एक ही होता है और एक में से एक घटाने पर भी एक ही बचता है. परब्रह्म का यही स्वरूप है.

ब्रह्म विद्या का पर्याप्त ज्ञान न होने के कारण हम माया से आवृत्त हैं इसीलिए हम अपने को कृष्ण से पृथक सोचते हैं. यद्यपि हम कृष्ण के भिन्न अंश हैं तो भी हम उनसे भिन्न नहीं हैं. जीवों का शारीरिक अंतर माया है अथवा वास्तविक सत्य नहीं है. हम सभी कृष्ण को प्रसन्न करने के निमित्त हैं. केवल माया के कारण ही अजरुन ने सोचा कि उसके स्वजनों से उसका क्षणिक शारीरिक संबंध कृष्ण के शात आध्यात्मिक संबंधों से अधिक महत्वपूर्ण है.

गीता का संपूर्ण उपदेश इसी ओर लक्षित है कि कृष्ण का नित्य दास होने के कारण जीवन उनसे पृथक नहीं हो सकता. कृष्ण को अपने से विलग मनना ही माया कहलाती है. परब्रह्म के भिन्न अंश के रूप में जीवों को एक विशिष्ट उद्देश्य पूरा करना होता है. उसको भुलाने के कारण ही वे अनादिकाल से मानव, पशु, देवता आदि देहों में स्थित हैं. ऐसे शारीरिक अंतर भगवान की दिव्य सेवा के विस्मरण से जनित हैं.

(प्रवचन के संपादित अंश ‘श्रीमदभगवद्गीता’ से साभार)



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