ईश्वर विश्वास क्यों जरूरी!
ईश्वर विश्वास के सहारे हम जीवन का स्वरूप, लक्ष्य एवं उपयोग समझने में समर्थ होते हैं.
धर्माचार्य पं. श्रीराम शर्मा आचार्य |
यदि ईश्वरीय विधान को अमान्य ठहरा दिया जाए तो मत्स्यन्याय का ही बोलबाला रहेगा. आन्तरिक नियंत्रण के अभाव में बाह्य नियंत्रण मनुष्य जैसे चतुर प्राणी के लिए बहुत अधिक कारगर सिद्ध नहीं हो सकता.
ईश्वर विश्वास ने आत्मनियंत्रण का पथ प्रशस्त किया है और उसी आधार पर मानवी सभ्यता का, आचार संहिता का, स्नेह-सहयोग एवं विकास परिष्कार का पथ प्रशस्त किया है. यदि मान्यता क्षेत्र से ईश्वरीय सत्ता को हटा दिया जाय तो फिर संयम और उदारता जैसी मानवी विशेषताओं को बनाए रहने का कोई दार्शनिक आधार शेष न रह जायेगा. तब चिन्तन क्षेत्र में जो उच्छृंखलता प्रवेश करेगी, उसके दुष्परिणाम वैसे ही होंगे जैसे असुरों के नृशंस क्रिया-कलाप का वर्णन पढ़ने-सुनने को मिलता है.
ईश्वर अंधविश्वास नहीं, एक तथ्य है. सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र आदि सभी का उदय-अस्त क्रम अपने ढर्रे पर ठीक तरह चल रहा है. प्रत्येक प्राणी अपने ही जैसी सन्तान उत्पन्न करता है और हर बीज अपनी ही जाति के पौधे उत्पन्न करता है. शरीर और मस्तिष्क की संरचना और कार्यशैली देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है. इतनी सुव्यवस्थित कार्यपद्धति बिना किसी चेतना शक्ति के अनायास नहीं चल सकती. उस नियंता का अस्तित्व जड़ और चेतन दोनों क्षेत्रों में प्रत्यक्ष और परोक्ष की दोनों कसौटियों पर पूर्णतया खरा सिद्ध होता है.
सत्कर्मों का फल तत्काल न मिलने पर लोग अधीर होने लगते हैं और दुष्कर्मों का तात्कालिक लाभ देख आतुरता प्रकट करते हैं. इन भूल-भुलैयों में भटका व्यक्ति अपना और समाज का भविष्य अंधकारमय बनाता है. इस गड़बड़ी की रोकरथाम में ईश्वर विश्वास से भारी सहायता मिलती है.
व्यक्तिगत चरित्र-निष्ठा व समाजगत सुव्यवस्था का आधार सुदृढ़ रहता है. इन्हीं दूरगामी परिणामों को देखते हुए तत्वज्ञानियों ने ईश्वर विश्वास को अपनाये रहने की प्रेरणा दी है. वह आधार दुर्बल न होने पाये, हर रोज स्मृत्तिपटल पर जमा रहे, इसलिए साधना, उपासना का सुविस्तृत विधि-विधान विनिर्मिंत किया है. इन्हें अपनाकर मनुष्य दिव्यसत्ता को अपने भीतर-बाहर विद्यमान देखता है और सुमार्ग पर चलने को प्रवृत्त रहता है.
(गायत्रीतीर्थ शान्तिकुंज, हरिद्वार)
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