आसक्ति अनासक्ति का भाव

Last Updated 01 Jul 2015 12:54:30 AM IST

प्राय: अपने को सही साबित करने के लिए तुम दूसरों की भावनाओं के प्रति असंवेदनशील हो जाते हो.


श्री श्री रविशंकर

जब किसी को चोट पहुंचती है, उस समय वाद-विवाद करना और अपने को सही साबित करना व्यर्थ होता है. केवल सहजता से सॉरी कहकर तुम दूसरे व्यक्ति को ऊपर उठा सकते हो और उसकी कडुवाहट दूर कर सकते हो. कई परिस्थितियों में सॉरी कहना सफाई देने से अच्छा है. इससे बहुत सी अप्रिय स्थितियों से बचा जा सकता है.

सत्यनिष्ठा से बोला गया पांच अक्षर का यह अंग्रेजी शब्द क्रोध, घृणा, अपराध भाव व दूरियां मिटा सकता है. कई लोगों को दूसरों से सॉरी सुनने में गर्व महसूस होता है. इससे उनका अहंकार बढ़ता है. परंतु तुम जब किसी ज्ञानी को सॉरी कहते हो तो उसे तुम्हारी अज्ञानता पर दया आती है.

गलती अचेतन मन का हिस्सा है. अचेतन मन सही नहीं कर सकता जबकि सचेत मन गलती नहीं कर सकता. वह मन जिसने गलती की है, और वह मन जो गलती मान रहा है और सॉरी कह रहा है, पूर्णत: भिन्न होते हैं.

तुम जानते हो कि दुनिया गोल क्यों है? ताकि तुम उसे लात मार सको और वह लुढ़क जाए. तुम हर समय लोगों के साथ होते हो और तुम्हारा मन सांसारिक विचारों में फंसा रहता है, इसलिए दिन में कुछ मिनट आंखे बंद करके बैठो और हृदय की गहराई में जाकर दुनिया को गेंद की तरह लात मार दो. पर जैसे ही आंखे खोलो, गेंद को फिर से पकड़ लो क्योंकि अगले सत्र में तुम्हें उसे फिर से लात मारने की जरूरत है.

दिन में शत-प्रतिशत अपने कार्य में संलग्न रहो, अपने को विरक्त करने की कोशिश मत करो, परंतु जब ध्यान करने बैठो तो अपने को पूर्णत: विरक्त कर लो. जो लोग अपने को पूर्णत: विरक्त कर सकते हैं, वे ही पूर्ण जिम्मेदारी भी ले सकते हैं. अंत में तुम एक ही समय में आसक्त अनासक्त दोनों हो सकते हो. गेंद को लात मारो और गोल में रहो. यही जीवन की कला है, यही जीने की युक्ति है.

संपादित अंश ‘सच्चे साधक के लिए एक अंतरंग वार्ता’ से साभार



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