तर्क और सत्य का अंतर
अधिकतर तुम वही करते हो जो उदेश्यपूर्ण और तार्कित होता है. जो कुछ भी तुम देखते हो, तार्किक बुद्धि द्वारा देखते हो.
धर्माचार्य श्री श्री रविशंकर |
परन्तु एक अन्त:दृष्टि, एक खोज, एक नया ज्ञान तार्किक बुद्धि के परे जाता है. सत्य तर्क के परे है. तार्किक बुद्धि रेलगाड़ी की पटरी की तरह है जो खांचों में स्थित है, अचर. सत्य को पटरी की जरूरत नहीं होती. सत्य कहीं भी गुब्बारे की तरह बह सकता है. कुछ व्यक्ति तार्किक बुद्धि से इसलिए बाहर निकलते हैं ताकि वे समाज से विद्रोह करें. वे सामाजिक कानून तोड़ना चाहते हैं परन्तु यह उनके अहंकार का कारण है- क्रोध से, नफरत से, विद्रोहशीलता से और अपनी ओर ध्यान आकर्षण करने के लिए वे ऐसा करते हैं. यह तार्किक बुद्धि से बाहर निकलना नहीं हैं, हालांकि वे ऐसा सोच सकते हैं.
तार्किक बुद्धि से हम तब बाहर निकलते हैं जब कुछ ऐसा कहते हैं जिसका कोई उद्देश्य नहीं. जब कोई उद्देश्य नहीं, तब वह कार्य खेल बन जाता है. जीवन हल्का हो जाता है, कम वजनीय. यदि तुम केवल विचारशील कार्यो में फंसे हो, जीवन एक बोझ है. लेकिन यदि तुम कोई खेल बिना जीतने या हारने के विचार से खेलते हो, बिना उद्देश्य जोड़े यदि कुछ करते हो- अबोध होकर- तो यह स्वतंत्रता है, एक नृत्य की तरह.
तार्किक बुद्धि से बाहर कदम रखो तो तुम अपने को अत्यन्त स्वतंत्र पाओगे- एक अज्ञेय गहनता. और तुम वास्तविकता के सम्मुख होओेगे. वास्तविकता तर्क और तार्किक बुद्धि के परे है. जब तक तुम तार्किक बुद्धि के परे नहीं जाते, तब तक सृजनात्मकता और दिव्यता तक पहुंच ही नहीं सकते. परन्तु याद रखो- यदि तुम बिना विचारे कोई कार्य स्वतंत्रता पाने के लिए करते हो, तब तुम्हारे पहले से ही कोई उद्देश्य हैं. तब यह अतार्किक नहीं. इस ज्ञान-पत्र ने पहले ही अपनी संभावना को खो दिया है. तार्किक बुद्धि के अवरोध को पार कर स्वयं के लिए स्वतंत्रता पाओ.
संपादित अंश ‘सच्चे साधक के लिए एक अंतरंग वार्ता’ से साभार
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