सत्संग : श्रद्धा का सकारात्मक भाव
शंका जीवन का वह अंश है जिसमें भूरापन है. जो न तो सफेद है, न काला. फिर शंका का समाधान कैसे करें?
धर्माचार्य श्री श्री रविशंकर |
जिस बात पर शंका है उसे काला या सफेद मानकर स्वीकार कर लो. अपनी शंका को सफेद देखो, कोई शंका नहीं बचती. या उसे काला देखो और स्वीकार कर लो. दोनों में किसी भी तरीके से, उसे स्वीकार करो और आगे बढ़ो. किसी को ईमानदार या फिर बेईमान मानकर स्वीकार करो. तब तुम्हारा मन शान्त रहता है. तब तुम शंका के भूरेपन में नहीं हो. दृढ़विश्वास रखो- ‘वह बेईमान है पर फिर भी मेरा ही अंश है. वह जैसा भी है, मैं उसे स्वीकार करता हूं.’
शंका ऐसी डांवाडोल अवस्था है जिसमें पैर न इस किनारे हैं और न उस किनारे. वहां से तनाव शुरू होता है. कोई एक दिशा चुनो और फिर उसे अपने पैर जमा लो. कभी ध्यान दिया है कि तुम केवल अपने जीवन की सकारात्मक चीजों पर ही शंका करते हो? नकारात्मक चीजों पर शंका नहीं करते. तुम किसी की ईमानदारी पर शंका करते हो और उसकी बेईमानी पर विश्वास. जब कोई तुमसे नाराज होता है तो उसकी नाराजगी पर तुम्हें कोई शंका नहीं होती. पर जब कोई कहे कि वे तुमसे प्रेम करते है तो मन में शंका आ जाती है कि क्या सच में वह मुझसे प्रेम करता है.
जब तुम दुखी होते हो तो क्या कभी सोचते हो कि क्या मैं सच में दुखी हूं? नहीं, तुम अपने दुख को सत्य मान लेते हो लेकिनजब तुम प्रसन्न होते हो तो शंका करते हो कि क्या मैं सच में प्रसन्न हूं या क्या वास्तव में मैं यही चाहता था? तुम अपने सामर्थ्य पर तो शंका करते हो, पर क्या कभी अपने असामर्थ्य पर भी शंका करते हो? सकारात्मक चीजों पर शंका करने की इस धारणा को देखो. शंका को उसके उचित स्थान पर रखो और शंकाओं पर शंका करो. नकारात्मक पर शंका करो और अपनी श्रद्धा सकारात्मक में रखो.
संपादित अंश ‘सच्चे साधक के लिए एक अंतरंग वार्ता’ से साभार
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