गुरु का प्रयोजन
गुरु शब्द का अर्थ बड़ा प्यारा है. इसका अर्थ होता है- जिससे अंधकार मिटे. गुरु शब्द का अर्थ होता है- दीया, रोशनी. प्यारा शब्द है.
आचार्य रजनीश ओशो |
मगर प्यारे से प्यारे शब्द गलत लोगों के हाथों में पड़ कर घातक हो जाते हैं. कितना प्यारा शब्द है! लेकिन उसके क्या-क्या अर्थ हो गए! गुरुडम पैदा हो गई इस प्यारे अर्थ से, गुरुघंटाल पैदा हो गए इस प्यारे शब्द से.
देश के कई हिस्सों में तो गुरु का मतलब होता है गुंडा. पहुंचे हुए गुंडों को लोग कहते हैं कि वाह गुरु, क्या बात कहीं! जैसे मुंबई में गुंडा के लिए अच्छा शब्द उपयोग करना पड़ता है, क्योंकि गुंडे से गुंडा कहो तो खोपड़ी खोल दे. तो बंबई में उसको कहते हैं दादा. गजब की बात है- दादा और गुंडा! ऐसे ही जबलपुर में गुंडे को कहते हैं गुरु. कहना ही पड़ेगा, कुछ न कुछ अच्छा शब्द खोजना पड़ेगा. गुंडे को गुंडा तो नहीं कह सकते.
बहुत गुंडे गुरु शब्द के पीछे छिपे खड़े हैं. और बहुत-सी दुकानें गुरु के पीछे छिपी खड़ी हैं. सबसे बड़ी भ्रांति तो यह है कि ज्ञान बाहर से मिल सकता है.
ज्ञान बाहर से मिल ही नहीं सकता. ज्ञान तुम्हारा अंतर-भाव है, तुम्हारे भीतर के सूरज का उगना है. फिर बाहर गुरु का क्या प्रयोजन है? बाहर के गुरु का प्रयोजन वही है जो बाहर के संगीत का होता है. जब कोई तबले पर ताल देता है, तो तुमने अनुभव किया, तुम्हारे पैर नाचने को उत्सुक हो उठते हैं! क्या हुआ? क्या हो गया? इधर जब कोई तबले पर ताल पड़ी, किसी ने मृदंग बजाई, उधर तुम्हारे पैरों में क्या होने लगा? कैसी हलचल? तुम नाचने को उत्सुक होने लगे.
पश्चिम के बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक कार्ल गस्ताव जुंग ने इस प्रक्रिया के लिए एक नया ही नाम खोजा है- सिनक्रानिसिटी, समस्वरता. बाहर कोई चीज घट रही है तो ठीक उसके समांतर कोई चीज भीतर घटनी शुरू हो जाती है. बाहर संगीत बजा, और तुम्हारे भीतर भी कोई धुन बजने लगती है. बाहर संगीत बजा, और तुम्हारा सिर हिला, तुम्हारे पैर नाचे. वह संगीत तुम्हारे भीतर था. वह पहले भी था जब संगीत नहीं बज रहा था, लेकिन अब संगीत ने उसे जगा दिया.
यही काम है बाहर के गुरु का, कि वह बाहर की मृदंग बजा दे, कि बाहर की बांसुरी बजा दे, कि बाहर की वीणा छेड़ दे, कि उसके समस्वर तुम्हारे भीतर जो सोए पड़े हैं, उन पर टंकार पड़ जाए. तुम्हें याद आ जाए अपने भीतर की.
साभार : ओशो वर्ल्ड फाउंडेशन, नई दिल्ली
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