जैनाचार का प्राण अहिंसा

Last Updated 02 Apr 2015 12:45:52 AM IST

महावीर स्वामी का सबसे बड़ा सिद्धान्त अहिंसा का है. उनका समस्त दशर्न, चरित्र, आचार विचार इसी पर आधारित है.


पं. श्रीराम शर्मा आचार्य, धर्माचार्य

उन्होंने अपने सभी अनुयायियों को चाहे वे मुनी (साधु) हों अथवा श्रावक (गृहस्थ), अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह के पांच व्रतों का पालन करना आवश्यक बताया है.

परन्तु इनमें अहिंसा की भावना सर्वोपरि है, इसलिए जैन विद्वानों का प्रमुख उपदेश भी अहिंसा परमोधर्म: है. अहिंसा ही मानव का सच्चा  धर्म है, सच्चा कर्म है. अहिंसा जैनाचार का प्राण है. अहिंसा मानवी है, हिंसा दानवी. मनुष्य ने जबसे अहिंसा को भुला दिया, तबसे वह दानव हो गया और उसी का अभिशाप मनुष्यता को भुगतना पड़ रहा है.जो अहिंसा का पालन करता, हिंसा से मानवता को बचाता है, वही सच्चा मानव है.

महावीर स्वामी ने अपने समय में जिस अहिंसा के सिद्धान्त का प्रचार किया, वह निर्बलता और कायरता उत्पन्न करने के बजाय राष्ट्र निर्माण का संगठन करके उसे सब प्रकार से सशक्त और विकसित बनाने वाली थी. उसका उद्देश्य मनुष्य मात्र के बीच शान्ति और प्रेम का व्यवहार स्थापित करना था परन्तु अब तक लोगों ने अहिंसा के उस तत्त्व को ठीक से हृदयंगम नहीं किया है. महात्मा गांधी ने गुजरात के एक जैन विचारक श्री रायचन्द के उपदेशों से प्रभावित होकर महावीर के अहिंसा तत्व का अध्ययन और मनन किया और आजीवन उसके अनुयायी बने रहे. भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम का आधार अहिंसा पर रख उन्होंने संसार के सम्मुख अद्भुत आदर्श रखा.

महात्मा जी ने 1919 में अहमदाबाद की एक सभा में भाषण देते हुए कहा था- ‘मैं विश्वास पूर्वक कह सकता हूं कि महावीर स्वामी का नाम इस समय यदि किसी सिद्धांत के लिए पूजा जाता है, तो वह अहिंसा ही है...प्रत्येक धर्म की उच्चता इसी में है कि उसमें अहिंसा तत्व कितने परिमाण में है, और इस तत्व को अधिक से अधिक किसी ने विकसित किया है तो वे हैं भगवान महावीर स्वामी.’

वास्तव में अहिंसा की बड़ी-बड़ी बात कह देना, उसके बारे में उपदेश देना एक बात है और उसे जीवन में उतारना दूसरी बात, जिसे महावीर ने, बुद्ध ने और गांधी ने करके दिखाया. अहिंसा के आधार पर ही पारस्परिक प्रेम, सहकार, दया, करु णा आदि दिव्य भावों का विकास होता है. परिवार व समाज में इसी महान तत्व के कारण स्वर्गीय वातावरण संभव होता है. इसलिए महावीर के परम धर्म को जिनता हो सके, जीवन में उतारने का प्रयत्न करना चाहिए.

(गायत्री तीर्थ शान्तिकुंज, हरिद्वार)



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