आसक्ति नहीं सजगता है संवेदनशीलता
संवेदनशील होते हुए भी विरक्त कैसे हुआ जाए? ये दोनों बातें विरोधी नहीं हैं, विपरीत नहीं हैं.
धर्माचार्य आचार्य रजनीश ओशो |
यदि तुम अधिक संवेदनशील हो तो तुम विरक्त होओगे या यदि तुम विरक्त हो तो अधिकाधिक संवेदनशील होते जाओगे. परंतु संवेदनशीलता आसक्ति नहीं है, संवेदनशीलता सजगता है. केवल एक सजग व्यक्ति ही संवेदनशील हो सकता है. यदि तुम सजग नहीं हो तो असंवेदनशील होओगे. जब तुम बेहोश होते हो तो बिल्कुल असंवेदनशील होते हो.
जितनी अधिक सजगता, उतनी ही अधिक संवेदनशीलता. बुद्ध पुरुष पूर्णतया संवेदनशील होता है. उसकी संवेदनशीलता परम होती है, क्योंकि वह अपनी परिपूर्ण क्षमता से अनुभव करेगा और सजग होगा. लेकिन जब तुम संवेदनशील होते हो और सजग होते हो तो तुम आसक्त नहीं होओगे, तुम विरक्त रहोगे.
क्योंकि सजगता की यह घटना ही तुम्हारे और वस्तुओं के बीच, तुम्हारे और व्यक्तियों के बीच, तुम्हारे और संसार के बीच सेतु को तोड़ डालती है, सेतु को नष्ट कर देती है. बेहोशी और नींद ही आसक्ति के कारण हैं. यदि तुम सजग हो तो सेतु अचानक टूट जाता है. जब तुम सजग हो तो संसार से जुड़ने के लिए कुछ भी नहीं बचता. संसार भी है, तुम भी हो, लेकिन दोनों के बीच का सेतु टूट गया है. वह सेतु तुम्हारी बेहोशी से बना है.
तो ऐसा मत सोचो कि तुम आसक्त हो रहे हो क्योंकि तुम अधिक संवेदनशील हो गए हो. नहीं, यदि तुम्हारी संवेदनख़्ण्लता बढ़ेगी तो तुम आसक्त नहीं होओगे. आसक्ति तो बड़ा स्थूल गुण है, सूक्ष्म नहीं है. आसक्ति के लिए तुम्हें सजग और जागरूक होने की कोई जरूरत नहीं है. जानवर भी बड़ी सरलता से, बल्कि अधिक सरलता से आसक्त हो सकते हैं. किसी मनुष्य से ज्यादा एक कुत्ता अपने मालिक से आसक्त होता है. कुत्ता पूरी तरह बेहोश है, इसलिए आसक्ति हो जाती है.
इसीलिए जिन देशों में मानवीय संबंध निर्बल पड़ गए हैं, जैसे कि पश्चिम में, वहां मनुष्य जानवरों से, कुत्तों से या अन्य जानवरों से संबंध स्थापित करता जा रहा है. क्योंकि मानवीय संबंध तो अब रहे ही नहीं. मानव समाज समाप्त होता जा रहा है और हर मनुष्य एकाकी, अजनबी, अकेला महसूस करता है. भीड़ है, लेकिन तुम्हारा उससे कोई संबंध नहीं है. तुम अकेले हो भीड़ में. और यह अकेलापन तुम्हें खलता है. तो आदमी भयभीत हो जाता है और डरने लगता है.
साभार : ओशो वर्ल्ड फाउंडेशन, दिल्ली
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