आत्म-साक्षात्कार का लक्षण
विद्वान योगी की दृष्टि में शरीरगत भेद अर्थहीन होते हैं. इसका कारण परमेश्वर से उनका संबंध है और परमेश्वर परमात्मा के रूप में हर एक के हृदय में स्थित हैं.
धर्माचार्य स्वामी प्रभुपाद |
परम सत्य का ऐसा ज्ञान वास्तविक (यथार्थ) ज्ञान है. जहां तक विभिन्न जातियों या विभिन्न योनियों में शरीर का संबंध है, भगवान सबों पर समान रूप से दयालु हैं क्योंकि वे प्रत्येक जीव को अपना मित्र मानते हैं, फिर भी जीवों की समस्त परिस्थितियों में वे अपना परमात्मा स्वरूप बनाए रखते हैं. शरीर तो प्रकृति के गुणों के द्वारा उत्पन्न हुए हैं, किंतु शरीर के भीतर आत्मा तथा परमात्मा समान आध्यात्मिक गुण वाले हैं.
परंतु आत्मा तथा परमात्मा की यह समानता उन्हें मात्रात्मक दृष्टि से समान नहीं बनाती क्योंकि व्यष्टि आत्मा किसी विशेष शरीर में उपस्थित होती है, किंतु परमात्मा प्रत्येक शरीर में है. कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को इसका पूर्णज्ञान होता है, इसीलिए वह सचमुच ही विद्वान तथा समदर्शी होता है. आत्मा तथा परमात्मा के लक्षण समान हैं क्योंकि दोनों चेतन, शात तथा आनंदमय हैं. किंतु अंतर इतना ही है कि आत्मा शरीर की सीमा के भीतर सचेतन रहती है, जबकि परमात्मा सभी शरीरों में सचेतन है. परमात्मा बिना किसी भेदभाव के सभी शरीरों में विद्यमान है.
मानसिक समता आत्म-साक्षात्कार का लक्षण है. जिन्होंने ऐसी अवस्था प्राप्त कर ली है, उन्हें भौतिक बंधनों पर, विशेषतया जन्म तथा मृत्यु पर, विजय प्राप्त किए हुए मानना चाहिए. जब तक मनुष्य शरीर को आत्मस्वरूप मानता है, वह बद्धजीव माना जाता है, किंतु जैसे ही वह आत्म-साक्षात्कार द्वारा समचित्तता की अवस्था को प्राप्त कर लेता है, वह बद्धजीवन से मुक्त हो जाता है. दूसरे शब्दों में, उसे इस भौतिक जगत में जन्म नहीं लेना पड़ता, अपितु अपनी मृत्यु के बाद वह आध्यात्मिक लोक को जाता है.
भगवान निदरेष हैं क्योंकि वे आसक्ति अथवा घृणा से रहित हैं. इसी प्रकार जब जीव आसक्ति अथवा घृणा से रहित होता है तो वह भी निदरेष बन जाता है और बैकुंठ जाने का अधिकारी हो जाता है. ऐसा व्यक्ति भलीभांति जानता है कि मैं यह शरीर नहीं हूं, अपित भगवान का अंश हूं. अत: कुछ पाने पर न तो उसे प्रसन्नता होती है, न हानि होने पर उसे शोक होता है.
(प्रवचन के संपादित अंश श्रीमद्भगवद्गीता से साभार)
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