सत्ता की भूख और आधिपत्य भाव

Last Updated 26 Nov 2014 12:22:34 AM IST

लोग सत्ता के भूखे इसलिए होते हैं क्योंकि वे अपनी ओर ध्यान आकर्षित कराना चाहते हैं. जिस प्रकार धन साधन होता है, उसी प्रकार सत्ता भी साधन है.


धर्माचार्य श्री श्री रविशंकर

किसी परिणाम को पाने के लिए जोश होता है. जो लोग सत्ता और धन को साधन न मानकर साध्य मान लेते हैं, वे जीते नहीं हैं, केवल मौजूद होते हैं. यदि तुमने यह नहीं जाना कि तुम ही शक्ति हो अर्थात तुम ही ब्रह्मज्ञानी हो, तब तुम में सत्ता की भूख होगी.

तुम अपने प्रति ध्यान आकर्षित करवाना चाहोगे और अपनी पहचान बनाना चाहोगे जब तुम्हारे अंदर कोई प्रतिभा नहीं होती, प्रेम और उत्साह नहीं होता, तुम मासूम और बच्चों जैसे सहज नहीं होते. यदि तुम्हारे अंदर कोई प्रतिभा नहीं हो, समाज में कोई सार्थक योगदान न हो, जैसे कि एक कलाकार, वैज्ञानिक या स्वयंसेवक का होता है, तब तुम सत्ता की आकांक्षा करोगे.

यदि तुम में समाज में परिवर्तन लाने के लिए प्रेम या जोश नहीं है तब तुम सत्ता की अभिलाषा करोगे. यदि एक बच्चे की तरह सहज नहीं हो, संपूर्ण विश्व के साथ तुम्हें अपनापन नहीं लगता, तब तुम्हें सत्ता की अभिलाषा होती है. सच्ची शक्ति आत्मा की शक्ति होती है. वास्तविक आत्मविश्वास, बल और खुशी का स्फुरण आत्मा से होता है. जो यह जानता है वह शक्ति के लिए बिल्कुल भी भूखा नहीं होता.

मनुष्य में चीजों को अपना बनाने की प्रवृत्ति होती है. जब वह किसी छोटी सी वस्तु को अपना बनाता है, तब उसका मन भी छोटा ही रह जाता है. जीवन संकुचित हो जाता है और उसकी संपूर्ण चेतना घर, गाड़ी, पति-पत्नी, बच्चे आदि में संकुचित हो जाती है. एक संन्यासी अपना घर छोड़कर चला जाता है पर वहां भी वह अपने आसन, माला, किताबें धारणाएं और ज्ञान के प्रति स्वामित्व शुरू कर देता है.

जब तुम किसी बड़ी चीज को अपनाते हो, तब तुम्हारी चेतना का विस्तार होता है और जब छोटी-छोटी चीजों को अपनाते हो तो छोटी-छोटी नकरात्मक भावनाएं पनपने लगती हैं, जैसे गुस्सा, लोभ आदि. जब तुम किसी विशाल चीज को अपना बनाते हो, तो तुम्हारी चेतना भी विशाल हो जाती है.

(संपादित अंश सच्चे साधक के लिए एक अंतरंग वार्ता से साभार)



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