भगवान का विश्वरूप

Last Updated 21 Nov 2014 12:17:34 AM IST

अर्जुन भगवान के विश्वरूप को देखना चाहता था, अत: भगवान कृष्ण ने अपने भक्त अर्जुन पर अनुकम्पा करते हुए उसे अपने तेजोमय तथा ऐश्वर्यमय विश्वरूप का दर्शन कराया.


धर्माचार्य स्वामी प्रभुपाद

यह रूप सूर्य की भांति चमक रहा था और इसके मुख निरंतर परिवर्तित हो रहे थे. कृष्ण ने यह रूप अर्जुन की इच्छा को शान्त करने के लिए ही दिखलाया.

यह रूप कृष्ण की उस अन्तरंगाशक्ति द्वारा प्रकट हुआ जो कल्पना से परे है. अर्जुन से पूर्व भगवान के इस विश्वरूप का किसी ने दर्शन नहीं किया था, किन्तु जब अर्जुन को यह रूप दिखाया गया तो स्वर्गलोक तथा अन्य लोकों के भक्त भी इसे देख सके. उन्होंने इस रूप को पहले नहीं देखा था, केवल अर्जुन के कारण वे इसे देख पा रहे थे.

दूसरे शब्दों में, कृष्ण की कृपा से भगवान के सारे शिष्य भक्त उस विश्वरूप का दर्शन कर सके, जिसे अर्जुन देख रहा था. किसी ने टीका की है कि जब कृष्ण सन्धि का प्रस्ताव लेकर दुर्योधन के पास गये ते, तो उसे भी इसी रूप का दर्शन कराया गया था.

दुर्भाग्यवश दुर्योधन ने शान्ति प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया. कृष्ण ने उस समय अपने कुछ रूप दिखाए थे किन्तु वे रूप अर्जुन को दिखाये गये इस रूप से सर्वथा भिन्न थे. स्पष्ट कहा गया है कि इस रूप को पहले किसी ने भी नहीं देखा था.

दिव्य दृष्टि को भलीभांति समझ लेना चाहिए. तो यह दिव्य दृष्टि किसके पास हो सकती है? दिव्य का अर्थ है दैवी. जब तक कोई देवता के रूप में दिव्यता प्राप्त नहीं कर लेता, तब तक उसे दिव्य दृष्टि प्राप्त नहीं हो सकती. और देवता कौन है?

वैदिक शास्त्रों का कथन है कि जो भगवान विष्णु के भक्त हैं, वे देवता हैं जो नास्तिक हैं, अर्थात् जो विष्णु में विश्वास नहीं करते या जो कृष्ण के निर्विशेष अंश को परमेश्वर मानते हैं, उन्हें यह दिव्य दृष्टि नहीं प्राप्त हो सकती.

ऐसा संभव नहीं है कि कृष्ण का विरोध करके कोई दिव्य दृष्टि भी प्राप्त कर सके. दिव्य बने बिना दिव्य दृष्टि प्राप्त नहीं की जा सकती. दूसरे शब्दों में, जिन्हें दिव्य दृष्टि प्राप्त है, वे भी अर्जुन की ही तरह विश्वरूप देख सकते हैं.

(प्रवचन के संपादित अंश श्रीमद्भगवद्गीता से साभार)



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