विभूति रहित संपदा निर्थक

Last Updated 30 Oct 2014 12:10:55 AM IST

हम संपदाएं कमाने में तल्लीन हों या विभूतियां उपार्जित करने के लिए तत्पर हों, इस ऊहापोह में गहराई तक उतरने के पश्चात इसी निष्कर्ष पर पहुंचना पड़ता है कि आत्मिक विभूतियों की समृद्धि भौतिक तुलनाओं की अपेक्षा कहीं अधिक सुखद एवं श्रेयस्कर है.


धर्माचार्य पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

धन, पद, बल, परिवार, वैभव, वर्चस्व, क्रियाकौशल आदि को संपदा गिना जाता है. विभूतियां उन आत्मिक गुणों को कहते हैं जो व्यक्तित्व को सुव्यवस्थित बनाने में सहायक होते हैं. धनवान का बड़प्पन और गुणवान की महानता दोनों की तुलना में सामान्य बुद्धि भले ही संपत्ति को प्रधानता दे, पर विवेकवान यही निर्णय करेंगे कि सद्गुणों की पूंजी-विभूति प्रत्येक दृष्टि से अधिक ऊंची और अधिक श्रेयस्कर है.

भौतिक उपलब्धियां तभी तक आकर्षक प्रतीत होती हैं जब तक वे मिल नहीं जातीं. मिलने पर तो उनके साथ जुड़े हुए झंझट और उन्माद इतने विषम होते हैं कि अंतत: उनके कारण मनुष्य अधिक अशांत उद्विग्न रहने लगता है. वस्तुस्थिति को समझने वाला संपत्तिवान देखता है कि संपत्ति का निजी उपयोग उतना ही हो सका, जितना कि निर्धन कर पाते हैं. जो अतिरिक्त जमा किया गया था, उसने मित्र वेषधारी शत्रुओं की, अगणित उलझनों की तथा चरित्रगत दोष-दुगरुणों की एक बड़ी फौज सामने लाकर खड़ी कर दी.

जितना श्रम और मनोयोग संपदा के उपार्जन में लगाया जाय, उतना ही ध्यान एवं प्रयास सद्गुणों के अभिवर्धन पर केंद्रित किया जाय, तो उस आत्मपरिष्कार का लाभ असाधारण रूप से उपलब्ध होगा. सत्कर्मों में निरत रहने से आत्म संतोष का ऐसा आनंद छाया रहता है जिसकी तुलना संपत्ति के उन्माद से किसी भी प्रकार नहीं की जा सकती. परिष्कृत स्वभाव के कारण अपने व्यवहार में जो शालीनता उत्पन्न होती है, वह संपर्क में आने वालों को प्रभावित किये बिना नहीं रहती.

सुविकसित पुष्प पर जिस प्रकार तितली और मधुमक्खियां मंडराती रहती हैं, उसी प्रकार दसों दिशाओं में सद्भावना की वष्रा परिष्कृत व्यक्तियों के ऊपर अहर्निश होती रहती है. विभूतिवान को संपदाओं से वंचित नहीं रहना पड़ता. कदाचित वे न भी मिलें, तो भी उसकी आंतरिक विशेषताएं ही प्रसन्न चित्त रखने के लिए पर्याप्त होती हैं. इसके विपरीत जिन्हें विभूतिरहित संपत्ति प्राप्त है, वे भीतरी उद्वेगों और बाहरी आक्रमणों से निरंतर संतप्त ही बने रहते हैं. संपदा का लाभ तभी है, जब वह विभूतियों के साथ जुड़ी हुई हो.

गायत्री तीर्थ शांतिकुंज, हरिद्वार



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