आत्मज्ञान से आत्मविस्तार
अध्यात्म शास्त्र में आत्मज्ञान की महत्ता, प्रतिक्रिया एवं सिद्धि परिणति का इतना अधिक प्रतिपादन हुआ है कि उससे बढ़कर इस संसार में और कोई बड़ी उपलब्धि मानी ही नहीं गई.
धर्माचार्य पं. श्रीराम शर्मा आचार्य |
अन्त:ज्ञान की उपयोगिता बाह्य ज्ञान की तुलना में कहीं अधिक है. सुख-साधनों की अभिवृद्धि की तरह उपभोगकर्ता की विवेक दृष्टि का प्रखर होना आवश्यक है अन्यथा भौतिक उपलब्धियों का दुरुपयोग ही बन पड़ेगा और उससे अगणित समस्यायें उत्पन्न होंगी. मोटर अच्छी होना पर्याप्त नहीं है, ड्राइवर यदि अनाड़ी हुआ तो कितने ही संकटों का सामना करना पड़ सकता है. साधनों की कमी रहते हुए भी जीवन-लक्ष्य सामने हो तो अभावों में भी सदा प्रसन्न और सन्तुष्ट रहा जा सकता है जबकि अन्त:विवेक के अभाव में साधनों की प्रचुरता से बंदर के हाथ में तलवार पड़ जाने जैसी स्थिति उत्पन्न होगी जिसने अपने मालिक की नाक पर बैठी मक्खी को उड़ाने के लिए गर्दन ही उड़ा दी थी.
आत्मज्ञान की आवश्यकता यदि अनुभव की जा सके तो सर्वप्रथम यह विचार करना होगा कि हम कौन हैं और क्यों जी रहे हैं? इस तथ्य पर आत्मवेत्ता ऋषियों ने गंभीर चिंतन एवं अनुसंधान से जो निष्कर्ष निकाले थे, वे बहुत ही महत्वपूर्ण हैं तथा आत्मानुसंधान में प्रवृत्त होने के इच्छुक जिज्ञासुओं का मार्गदर्शन करने में सक्षम हैं. आत्मा क्या है? परमात्म सत्ता का एक छोटा सा अंश. अणु की अपनी स्वतन्त्र सत्ता लगती भर है, पर जिस ऊर्जा आवेश के कारण उसका अस्तित्व बना है तथा क्रियाकलाप चल रहा है, वह व्यापक ऊर्जा तत्व से भिन्न नहीं है. एक ही सूर्य की अनन्त किरण संसार में फैली रहती है. एक ही समुद्र में अनेक लहरें उठती रहती हैं.
दीखने में बुलबुले और भंवर अपना स्वतन्त्र अस्तित्व प्रकट कर रहे होते हैं, पर यथार्थ में प्रवाहमान जलधारा की सामयिक हलचल मात्र हैं. जीवात्मा की स्वतन्त्र सत्ता दीखती भर है, पर उसका अस्तित्व व स्वरूप विराट् चेतना का ही अंश है. इस निष्कर्ष के आधार पर ही अध्यात्मवेत्ताओं ने उद्घोष किया कि ‘हम विश्व चेतना के एक अंश मात्र हैं. व्यष्टि और समष्टि की एकता शात है-पृथकता कृत्रिम. सबमें अपने को और अपने में सबको समाया हुआ, देखा, समझा और माना जाय. सबके हित में अपना हित सोचा जाए. परस्पर एक-दूसरे के सुख-दु:ख को अपना ही सुख-दु:ख माना जाय.
गायत्री तीर्थ शान्तिकुंज हरिद्वार
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