तर्क और आस्था

Last Updated 03 Sep 2014 12:23:48 AM IST

जो हुआ है उसकी चर्चा तर्क है और जो अनजान है, उसकी ओर अग्रसर होना आस्था है. तर्क पुनरावृत्ति है. आस्था अनुसंधान है.


धर्माचार्य श्री श्री रविशंकर

तर्क नित्य का नियम है. आस्था एक अपूर्व साहसिक अभियान है. तर्क और आस्था बिल्कुल विपरीत हैं, फिर भी वे जीवन के अभिन्न अंग हैं. आस्था न होना स्वयं ही एक दु:ख है. आस्था तुरंत आराम देती है.

जबकि तर्क स्थिर और स्वस्थचित्त बनाता है. विश्वास के बिना चमत्कार नहीं हो सकते. विश्वास से तुम प्रकृति के नियमों के परे जा सकते हो, परंतु इसके लिए तुम्हारा विश्वास पवित्र होना चाहिए. विश्वास तर्क से परे होता है. फिर भी तुम्हें अपने तर्क पर विश्वास होना चाहिए. विश्वास और तर्क का एक दूसरे के बिना अस्तित्व नहीं है. हर एक तर्क किसी न किसी विश्वास पर आधारित होता है.

पर जब भी तर्क या विश्वास टूटता है, अव्यवस्था और द्वंद्व उत्पन्न होते हैं जो तुम्हें विकास की ओर ले जाते हैं. विश्वास दो प्रकार का होता है, पहला भय, लोभ व असुरक्षा के कारण विश्वास होना और दूसरा प्रेम के द्वारा विश्वास होना, जैसे मां और बच्चे के बीच विश्वास, गुरु और शिष्य का विश्वास. प्रेम से होने वाला विश्वास टूटता नहीं है, जबकि लोभ या भय के द्वारा होने वाला विश्वास निर्बल होता है.

एक नास्तिक तर्क का आश्रय लेता है और एक आस्तिक विश्वास पर आश्रित रहता है. आस्तिक ईश्वर को एक बीमा पॉलिसी की तरह उपयोग करता है वह स्वयं को विशेष समझता है. ईश्वर की नजरों में ‘मैं’ और बाकी सब नहीं होता, सब समान होते हैं. एक नास्तिक वास्तविकता की ओर अपनी आंखें बंद रखने की युक्ति ढूंढ़ता है परंतु मृत्यु दोनों को ही विचलित कर देती है.

जब किसी प्रियजन की मृत्यु होती है, तब नास्तिक की आंखें खुलती हैं और आस्तिक का विश्वास टूट जाता है. केवल एक योगी, एक बुद्धिमान व्यक्ति ही स्थिर रहता है. क्योंकि वह तर्क और विश्वास दोनों से परे होता है. इसलिए आस्था और तर्क के बीच संतुलन की आवश्यकता है.

संपादित अंश ‘सच्चे साधक के लिए एक अंतरंग वार्ता’ से साभार



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